मैं नहीं जानता कि मैं कहाँ हूँ ? दूर-दूर तक बिखरे लाशों का ठेर । पहचान मुश्किल है कौन मनुष्य है कौन पशु ? उसी के बीच शायद सांसों की किसी छोर में लटका दबा पड़ा हूँ मैं । चारों ओर बिखरे टूटे घरों और पेड़ों के अवशेष किसी भीषण प्राकृतिक विपदा के गवाह हैं ।
वातावरण में व्याप्त तेज दुर्गंध पर, कहीं कोई रुदन कहीं कोई क्रदन नहीं ।
कहीं मैं ही तो अकेला नहीं ..? शिथिल पड़ चुकी आँखों में चलचित्र की भांति घूमने लगे पिछले पल । मैं मी. बजाज व्यापर जगत का बेताज बादशाह । सिनेमा जगत , राजनीति के गलियारे सभी मेरे इशारों पर चलते थे शेयर बाजार की उठा-पटक की ताकत रखने बाला मैं खुद को बेताज बादशाह समझता था ।
पर प्रकृति की एक उथल-पुथल ने मिटा कर रख दी जाने कितनों की तकदीर चन्द पलों में । सच प्रकृति की विराट शक्ति के आगे मनुष्य शून्य मात्र ही तो है… काश की हमने प्रकृति को समझा होता… तो जाने कितने काश… बच जाते दफन होने से …
(स्वतंत्र लेखन, कविता संग्रह प्रकाशित, राँची झारखंड, भारत)
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