• २०८१ असोज २८ सोमबार

मेरी कलम को

नंदा पाण्डेय

नंदा पाण्डेय

जाने क्या हो गया है
इन दिनों मेरी कलम को
डर लगता है
कहीं ’इश्क’ तो नहीं हो गया
मेरी कलम को
कागज देखते ही झूमने लगती है
कभी दुनिया भर का प्यार उमड़ आता है उसके मन में
तो कभी नफरत…
कभी प्रेम से विभोर हो गाने लगती है…
तो कभी वियोग में रोती है
कभी ईष्र्या लिखती तो कभी
डाह में जलती है…
लिखते हुए उसे खुद भी पता नहीं होता
आखिर लिखना क्या चाहती है
और
जब कभी रूठती है तो
कई कई दिनों तक चुपचाप बिलखती रहती है…
डरती हूं
कहीं सचमुच में ‘इश्क’ तो नहीं हो गया मेरी कलम को…
पल- पल जलाती है खुद को
अपने मन की हर परत खोल कर
उटपटांग लिखने बैठ जाती है…
न जाने किस अपमान की लपटों में
दहक रही है मेरी कलम इन दिनों…!
कोशिश कर रही हूं
प्रतिक्षण आहुति दे रही
कलम के अंतर्मन को पढ़ने की…
और जी रही हूं
इस उम्मीद में की
असंभव कुछ भी नहीं
बेशक टुकड़े- टुकड़े हृदय के अवशेषों के साथ ही सही
पर, एक बार फिर से
लिखेगी मेरी कलम


(स्वतंत्र लेखन, राँची, झारखंड, भारत)
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