• २०८० असोज ६ शनिवार

हम दोहराते हैं तारीखें बस !

संजीव निगम

संजीव निगम

कैसा अजीब जादू है,
जब हम किसी के एकदम नज़दीक
आ जाते हैं,
किसी के ख्यालों से बंध जाते हैं
इस तरह कि कुछ और
ख्याल ही नहीं रहता है,
जब बादल कल्पनाओं के
बरसने लगते हैं एक दूसरे में
घुल मिल कर ।
भावों की एक ही ज़मीन पर,
उगने लगती हैं एक सी फसलें  कोमल ।
तब भूल जाते हैं,
वह सटीक पल,
वह सुनिश्चित घड़ी,
जब विपरीत दिशाओं से चली आती
दो नदियाँ मिला देती हैं  अपना जल
एक दूसरे में,  मिटा देती हैं
अपनी स्वतंत्र पहचान ।

कितनी अजीब बात है,
समय गुज़रने पर,
हम नहीं जीते हैं फिर से,
वे पल, वे भाव, वे शब्द समर्पण के,
बस दोहराते हैं सिर्फ तारीखें ।


(स्वतंत्र लेखन, व्यंग्यकार । फिल्म सिटी रोड, मलाड पूर्व, मुंबई, भारत)
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