• २०८१ मंसिर १७ सोमबार

वह आयी थी उस दिन

 राकेश मिश्र

राकेश मिश्र

उस दिन वह सुबह ही आ गयी थी, सभी मिलने वालों के बीच बैठी रही चुपचाप । एक के बाद एक फÞरियादी मुझसे मिलने की जिद करते और दरवाजा खुलते ही बाहर की झिकझिक अंदर सुनायी पड़ती । अर्दली के लिए बड़ी मुश्किल होती है सुबह सुबह । पर उसने एक बार भी मिलने को नहीं कहा । हार कर बाद दोपहर मेरे उठने के समय अर्दली ने बताया — वह बैठी है । मैंने कहा — बताया क्यों नहीं, अब तो मुझे निकलना है, पूछो, क्यों मिलना चाहती है ?

अर्दली ने बाहर जा कर कहा — साहब जा रहे हैं, मिलना हो तो मिल लो । उसने पूछा अंदर कोई और तो नहीं ? नहीं, अर्दली ने कहा । शायद वह इसी मौकÞे का इंतजार कर रही थी । अंदर आयी तो मैंने पूछा — सुबह से बैठी हो, क्यों ? कोई खास बात है ?

मैंने देखा सहसा उसकी आँखें डबडबा आयीं थी, मैंने कहा बैठो और पानी के लिए घंटी बजायी । उसने तुरन्त आँखे पोंछ लीं । पानी पीकर संयत हुई तो बताया — उसने मारा, बेटे के सामने ही ! मैंने कहा — कहो तो पुलिस भेजूँ ! तुम शिकायत तो करती नहीं, कार्यवाही कैसे होगी ? मैं नहीं चाहती सर ! मुझे निकलना है, मुझे निकालो यहाँ से । सहसा मुझे लगा — जिन रिश्तों की बुनियाद में प्रेम होता है, उनसे निकलना देह से प्राण निकलने से भी मुश्किल होता है । मैंने पूछा — कब से चल रहा है ये सब ? कई साल हो गए, शुरू में कहीं भी मार देते थे । कई बार सास ससुर के सामने मारा, पर आज तो हद हो गयी । वह बताने लगी —मेरी उँगलिया बात बात में अपनी उँगली में फंसा कर तोड़ दी कई बार, अपनी हथेली मेरी तरफÞ करके अपनी दो ऊँगलियों को हिला कर दिखा रही थी । मैंने देखा उन दो ऊँगलियों के पोर कुछ ज्यादा गठीले थे । मेरी तो जैसे समझ में ही उतर गयीं जैसे वो गाँठें, कुंद सा हो गया मैं । उसने आगे बताया — मैने सोचा प्यार से चीजें ठीक हो जायेंगी पर उनके इरादे से अनजान मेरी चीख निकल जाती हैं मेरी और दर्द से मैं बिलबिला उठती हूँ । कभी भी गला पकड़कर दबा देते है । अक्सर कहते है तुम्हारी तो लाश भी नहीं मिलेगी ,ऐसा मारूँगा तुम्हें !

अब मेरा सर भारी होने लगा था, एक तो मुझे भूख लग रही थी, दूसरे इस अहसास से की जन्मों के स्वप्न की बुनियाद के रिश्ते कितने असहज और तकलीफÞ देह हो सकते हैं । कितना दर्द था उसकी आँखों में, हाथ पकड़ने से शुरू हुआ सफÞर बात–बात में उँगली तोड़ने तक कैसे पहुँचता है और फिर यह सब कितना डरावना और कष्टदायक है। मैं कहीं अपनी सोच में ही अटका हुआ था ! उसकी संयत आवाजÞ से मै वापस लौटा ।
सर मै नौकरी नहीं छोड़ सकती ,, मैं जाना चाहती हूँ अपने बच्चे के साथ ! मुझे केस नहीं करना ! मैंने कहा, तुम्हारी इतनी अच्छी नौकरी है, आराम से निकल सकती हो । बस एक शिकायत कर दो,नहीं तो वह तुम्हें मार देगा,अपने बेटे की सोचो ।

इस पर चुप रही, बहुत देर तक ।फिर उठ खड़ी हुई और जाते–जाते कहा, ठीक है कल लिख कर दे दूँगी । उसके बाद कई महीने कोई खोज खÞबर नहीं आयी । एक दिन मीटिंग मे उसे देखा । वजन काफी कम हो गया था और चेहरे की लालिमा स्पष्ट रूप से रक्ताल्पता के कारण गायब हो गयी थी । वह अपनी टीम के साथ आयी थी । उसे देखते ही मंै अपनी उत्सुकता नहीं रोक सका और सहसा मेरे मुँह से निकल गया “कैसी हो ! सब ठीक–ठाक ? मेरे इस अचानक पूछताछ के लिए तैयार नहीं थी वह । एक तीव्र असहजता का भाव उसके चेहरे पर कौंध गया । मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ । सबके सामने नहीं पूछना चाहिए था । पर उसके सपाट चेहरे पर एक अजनबी का भाव था, जैसे मुझे पहली बार देखा हो । फिर एक शाम मेरे सरकारी मोबाइल पर किसी का फोन आया, कोई ऐसा जो उसे और मुझे अलग से जानता था । मैंने तुरन्त पुलिस भेजी पर देर हो चुकी थी । अब मुझे लगता है मेरे पास उस दोपहर वह अपने अनुत्तरित प्रश्नों को छोड़ने आयी थी जिनके जबाब वह खुद खोज रही थी पर जैसे समय नहीं रह गया था उसके पास । पर अब मै क्या करूँ ? उत्तरों की सम्भावनाएँ तो उसके साथ ही चली गयीं ।
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भारतीय प्रशासनिक अधिकारी/उत्तरप्रदेश सरकार, लखनऊ, भारत ।
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