कविता

कलयुग तेरे गर्भ से, प्रकट सहस्रों राम ।
स्वयं सिहांसन जा चढ़े, पाँव पखारे आम ।।
तम्बाकू से घर भरे, नाना रोग हजार ।
अब पछताय क्या व्यसनी, खड़ा मौत के द्वार ।।
पान मसाला चाब कर, पीक थूकते लाल ।
भीतर( भीतर खाय जां, मुख में बैठा काल ।।
वर्जित है पर कर रहा, हो कर मद में चूर ।
अंतर छूमंतर करे, बीड़ी जरदा सूर ।।
तन गंगा में धो लिया, धुला न मन का पाप ।
मन मंदिर को धो सखा, हो तन निर्मल आप ।।
ईश्वर तेरे नाम से, लगा रहे हैं भोग ।
पेट बढ़ाये जा रहे, खाते पीते लोग ।।
पत्थर की शिवलिंग पर, चढ़ा रहा है क्षीर ।
अम्मा भूखी सो गई, बिस्तर दरिया तीर ।।
माता की कर वंदना, कर माँ का जयगान ।
कोई माता तो जाने, आज कृष्ण भवगान ।।
मम्मी मम्मी सुन जरा, सुन ले मेरी बात ।
वट्सएप पर रात दिन, किस से होती बात ।।
गीले बिस्तर पर पड़ी, मम्मी सारी रात ।
वरना सोने दे कहाँ, ये बच्चे की जात ।।
बच्चा सोये चैन से, लगा दिया है पेड ।
मम्मी को फुर्सत नहीं, सुला रही है मेड ।।
ममता की छाया नहीं, मिलती मीलों मील ।
माँ बच्चे के बीच में, सूख रही ना गील ।।
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साहित्य लोक, बायरी, डा‘ ददाहू जिला सिरमौर हिमाचल प्रदेश
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