कृष्ण राधा के बिना अधुरा बाड़न । रुक्मिणी अर्धांगिनी रहे, त राधा जिनगी । कृष्ण के साथ ना मिलल राधा के बाकिर राधा के बिना कृष्ण के नाम के भी कवनो महत्ता नइखे । देखल जाय त राधा लोक मानस के सृष्टि हई, काहे कि इनकर चर्चा देशी भाषा में पहिले भइल बाटे आ संस्कृत गं्रथ में बाद में । इतिहास के बात करल जाय त इ सम्बन्ध में ऐतिहासिक कवनो प्रमाण नइखे कि राधा के अस्तित्व रहे वा न रहे ।
वेद में कृष्ण के नाम त आइल बाटे, बाकिर राधा के ना । महाभारत के विस्तृत क्षेत्र में भी राधा के कहीं चर्चा नइखे । श्रीमद्भागवत में गोपी के उल्लेख भइल बाटे जे कृष्ण के विशेष कृपापात्र रहे, बाकिर उ राधा रहे एकर प्रमाण नइखे ।
‘राधा’ शब्द ‘राध्’ धातु से बनल बा, जेकर अर्थ ह ‘अराधना’ करल, एह तरह से राधा के अर्थ भइल ‘आराधक’ । हो सके ला भागवत के इहे कृष्ण आराधिका मध्ययुग में राधा हो गइली । राधा के कल्पना प्रथम शताब्दी के आस पास मानल जाला । आ अनुमान करल जाला कि लोकगीत के इहे राधा संस्कृत के धर्मग्रंथ में भगवान कृष्ण के पत्नी के रूप में स्वीकृत भइली । काव्य में राधा के प्रथम उल्लेख प्राकृत ग्रंथ ‘गाथा सप्तशती’ मे मिलेला आ एकरा बाद पंचतंत्र में । दशवीं शताब्दी के आस पास लिखल गइल ‘ब्रह्मवैवत्र्त पुराण’ में राधा पहिल बार कृष्ण के पत्नी के रूप में स्थापित भइली —
“स्वयं राधा कृष्णपत्नी कृष्णवक्षस्थल स्थिता ।”(ब्र.व्र.पु.)
निम्बार्क ‘वृषभानुजा’ राधा के कृष्ण के मूल प्रकृति मान के उनकर वामपक्ष के अधिकारी बनइलन —
“अंगे तु वामे वृषभानुजां मुदा । विराजमानामनुरुपसौभगाम् ।”
जयदेव त राधा के काव्य जगत के रानी बना दिहलन । सच त इ ह कि राधा के साहित्य में अवतारणा करे के श्रेय जयदेव के दिहल जा सकेला । जयदेव के राधा अत्यन्त कोमल आ मृदुल हई । कृष्ण के सौन्दर्य मंदिर सुवेशम पर उ मुग्ध हई । जयदेव के राधा केलि आ विलास प्रिय यौवन प्राप्त रमण्ी हई—
“राधा माधवयोर्जयन्ति यमुनाकुले रहः केलयः ।”
जयदेव के राधा में वनवाला के सजल निश्छल प्रगल्भता आ निर्बन्ध प्रेम के अजस्त्र वेगवान प्रवाह बाटे जे धरती के माटी से रचल गइल हई ऐही खातिर ओकर शारीरिक पक्ष मांसल बा—
“प्रथम समागम लज्जिगा पटु चाटु शतैरनुकूलम ।
मृदु मधुरस्मित भाषितया शिथिलीकृत जघन दुकूलम ।।”
जयदेव के बाद चण्डीदास, उमापति, विद्यापति आ नरसी मेहता इ लोग के काव्य जगत के आधार राधा भइली । मीरा त खुदे राधा बन गइली । अभिनव जयदेव विद्यापति गीतगोविन्द के नव यौवना राधा के वयःसंधि में ला खड़ा कइलन —
“शैशव यौवन दुहुँ मिलि गेल,
श्रवणक पथ दुहुँ लोचन लेल ।
वचनक चातुरि लहु लहु हास,
धरणिक चाँद करत प्रकाश ।”
राध ा के य चित्र मादक बा बाकिर अस्वाभाविक नइखे । शैशव आ यौवन के संधि में राधा के लोचन के आकर्ण विस्तार, मधुर मधुर हाँसल रुप अइसन जइसे धरती पर चाँद आ गइल होखे । विद्यापति के राधा जयदेव के राधा के ही तरह कौशल कुशल हई, बाकिर जयदेव के राधा में जहाँ माँसल विलास बाटे, वहीं विद्यापति के राधा में यौवन सौन्दर्याकर्षण के साथ ही शैशव के चंचलता भी बा —
“खने खने नयन कोन अनुसरई, खने खने वसन धूलि तनु भरई ।”
विद्यापति के राधा आगु चलके कृष्ण मिलन के उपरान्त तन मन से कृष्ण में लीन हो गईली । इहे कारण से डा.ग्रियर्सन विद्यापति के राधा के भगवान के परम शक्ति मानले बाड़न । विद्यापति स्वभाव से कवि रहलन—सौन्दर्य निरीक्षण में सिद्धकला के कवि । यही कारण रहे कि राधा के सौन्दर्य के जवन अनुपम सृष्टि विद्यापति करलन वइसन कोई ना क सकल ।
चण्डीदास विद्यापति के समसामयिक कवि रहलन बाकिर चण्डीदास के राधा एक भिन्न सृष्टि हई । उ परकीया हई । ओकरा मिलन में गुरुजन, ननद आदि बाधक बनल बा —
“घरे गुरुजन ननली दासन, विलंवै बाहिर है नू । अहा मरि मरि संकेत करि। यतना यातना दिनू ।।”
इ सभ बाधा राधा के चंचलता छीन लिहले बा ओकरा के प्राण के भय, आशंका आ मिलन के आकुल आनन्दानुभूति से भर दिहले बाटे । उ कबहुँ कलंक के भय से त्रस्त हो जा ली त कबहुँ मिmन के आनन्द के कल्पना से विह्वल । चण्डीदास के राधा नवनीत सन कोमल हई । अइसन राधा दूसर नइखे । संयोग के आनन्द में भी भावी वियोग के कल्पना से उ सिहर जाली । चण्डीदास राधा के सृष्टि भकित् विह्वल आँसु से कइले बाड़न । विद्यापति के राधा केलिप्रिय बाड़ी आ चण्डीदास के राधा तन्मयासक्त—
“तुम मोर पति तुम मोर गति मन नाहिं आन भाय ।”
विद्यापति के राधा चंचल हई त चण्डीदास के राधा मुग्धा आ भावुक । जयदेव के राधा के शरीर पक्ष माँसल ह आ विद्यापति के राधा के अंग अंग थिरकेला वहीं चण्डीदास के राधा के दसों इन्द्रियाँ मुग्ध मौन ।
एह सभ से हट के सूरदास के राधा हई । सूरदास के राधा ब्रजवनिता के शील आ मर्यादा के बीच विकसित होवेवाली सौन्दर्य प्रतिमा के प्रतीक हई जेकरा में बास्तविकता आ आदर्श, श्रृंगार आ भक्ति के अपूर्व मेल भइल बाटे । राधा के इ संयमित आ मर्यादित रूप अत्यन्त विरल बाटे—राधा परम निर्मल नारि । ऐहिक दृष्टि से सूरदास राधा के प्रेम के स्वाभाविक विकास देखेले बाड़न । लड़कपन में यमुना के किनारे राधा आ कृष्ण के भेंट होखेला, परिचय भइल— “‘पूछत श्याम कौन तू गोरी’” प्यार दुनु के मन में एक साथ जगेला—“प्रथम स्नेह दुहुन मन जानि ।”
लड़कपन के इ प्रीति गहीर होखे लागल । दुनु एक दूसरा के चाहे लागलन बाकिर शीलवश प्रेम के छुपावेलन । दूनु के प्रेम के विकास में नंद, ललिता, यशोदा आदि सभ सहायक बाड़न । चण्डीदास के राधा के जइसन भय सूरदास के राधा के नइखे । सूरदास के राधा के प्रेम के विकास पारिवारिक सम्बन्ध के बीच भइल बाटे । इ प्रेम में केवल रूप लावण्य नइखे, बल्कि दीर्घ साहचर्य बाटे । वयस्क होला पर भी राधा जयदेव, चण्डीदास या विद्यापति के राधा से अलग हई । सूरदास के राधा के हृदय में प्रेमधारा मर्यादा के किनारा तोड़ के नइखे बहत । सूरदास के राधा कृष्ण के प्रेमिका नइखी, पत्नी हई । विरह में राधा के रूप नमस्य आ प्रणम्य हो जाला । राधा कृष्ण के निन्दा न सह सकेली—सखि री हरि को दोष न देहु । प्रेम आ संयम के तत्व से गढ़ल सूरदास के राधा सम्पूर्ण कृष्ण साहित्य में अकेली बाड़ी ।
काव्य के आत्मा हई राधा । बाकिर कृष्ण काव्य के अनुराधा जीवन भर शोकाकूल रहली । उनकर आँसू पोछे के कोशिश कोई ना करलस । कहीं त राधा प्रेमिका के रूप में अइली, त कहीं प्रेम योगिनी के रूप में, कहीं परिणीता बन के । सभ के नजर में राधा व्यक्ति मात्र रहे ।
राधा के परिवर्तित रूप हरिऔध रचित ‘प्रियप्रवास’ में देखल गइल । ‘प्रियप्रवास’ में मुख्य स्वर आध्यात्मिक नइखे, नैतिक ह । ‘प्रियप्रवास’ के राधा चिरकुमारी हई । यहाँ राधा न त जयदेव के राधा की तरह प्रगल्भा हई, न चण्डीदास के राधा के तरह परकीया हई, न ही सूरदास के राधा के तरह परिणीता ।
यदि प्रियप्रवास के कृष्ण ‘नृ–रत्न’ बाड़न त राधा ‘रमणि–वृन्द–शिरोमणि’—“यक सुता उनकी अति दिव्य थी । रमणि वृन्द शिरोमणि राधिका ।” हरिऔध के राधा जेतना ही कान्तिमयी हई, ओतने ही ओकर हृदय उदार आ मन पवित्र बाटे । श्याम के याद में व्यथित होला के बावजूद संयात आ शांत हई । प्रियप्रवास के राधा गाँव से निकल के नगर में आ गइल बाड़ी एह अर्थ में भी इनकर व्यक्तित्व पूर्ववर्ती राधा से भिन्न बाटे ।
सम्पूर्ण साहित्य में अगर राधा के खोजल जाय त इ निश्चित बाटे कि राधा कृष्ण के आधार बाड़ी । अगर राधा कृष्ण के बिना अधूरा हई त कृष्ण भी सम्पूर्ण नइखन । प्रेम के कई रूप कृष्ण काव्य में मिलेला जेकर आत्मा राधा के प्रीति, विरह, कांति आ सौन्दर्य बाटे । साहित्य के समृद्धि राधा कृष्ण के प्रीत वर्णन से भइल बाटे । कृष्ण शरीर बाड़न त राधा आत्मा, एक दूसरा के पूरक, पवित्र प्रेम के परिचायक । एकर महत्ता राधे कृष्ण के नाम से बूझल जा सकेला । जहाँ कृष्ण के उच्चारण होला त पहिल नाम राधा के होला रुक्मिणी के ना । रक्मिणी पत्नी होके भी साहित्य में उपेक्षिता हई वहीं राधा काव्य–आत्मा ।
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(डा. श्वेता दीप्ति त्रिभुवन विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य की उप–प्राध्यापक हैँ ।)