• २०८१ फागुन १ बिहीबार

“प्रेम ना बाड़ी उपजै, प्रेम ना हाट बिकाय”

डा.श्वेता दीप्ति

डा.श्वेता दीप्ति

प्रेम एक शब्द ही नहीं जीवन की सजीव व्याख्या है । जिसके बिना सृष्टि की कल्पना बेमानी हो जाती है । जिसने ईश्वर की बनाई इस सुन्दर रचना को जीवन्त किया है वह प्रेम है । मनुष्य की अनेक भावनाओं में प्रेम सर्वश्रेष्ठ भावना है । प्रेम ही समूची सृष्टि का मूल कारण है । उस समय, जब सृष्टि का निर्माण नहीं हुआ था, ब्रह्मांड में केवल ब्रह्मा ही था, इक क्षण ऐसा भी आया, जब ब्रह्मा को स्वयं से ही प्रेम हो गया और ब्रह्मा जी ने सोचा–

“एकोहं बहुस्याम”

मैं एक हूँ,अनेक हो जाओ । बस फिर क्या था देर थी । समूची सृष्टि का निर्माण हो गया । सृष्टि का निर्माण हो जाने के बाद निर्माण की प्रक्रिया चालू रखने के लिए ब्रह्मा ने प्रकृति और परमेश्वर अर्थात स्त्री और पुरूष, मनु और शतरूपा का जन्म हुआ, और उन दोनों के मन में प्रेम का भाव उत्पन्न कर दिया । यही प्रेम आगे जाकर सृष्टि का बीज बन गया । प्रेम संसार की सबसे बड़ी शक्ति है, उसका प्रचंड और उद्दाम वेग न किसी नीति का अनुगमन करता है, ना किसी नियम और लीक का मोहताज होता है । प्रेम में जहां आत्म बलिदान होता है, वहीं ईष्र्या भी होती है। प्रेम मनुष्य की सर्वोच्च आध्यात्मिक अनुभूति है। कबीरदास जी ने लिखा है !

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।

राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय ।।

अर्थ ः प्रेम न तो किसी खेत अथवा क्यारी में उगता है और न ही यह किसी बाजÞार में बिकता है, यह तो वो खजाना है जो यदि किसी के मन को भा गया तो भले ही वह व्यक्ति राजा हो या कोई प्रजा, वो अपने प्राणों के मोल पर भी इसे प्राप्त करने के लिए तत्पर रहता है ।

प्रेम एक क्षण में पढ़ने की चीज नहीं है और न ही समझ में आ जाने की । यूँ कहें तो परुा जीवन भी कम पड़ जाता है । प्रेम चतुर्दिक होता है । कोयल की मधुर आवाज, फूलों की महक, हर तरफ छाया प्यार का खुमार यकायक ही हमें हमारे प्रिय की याद दिलाने लगता है और अगर हमारे जीवन में अब तक कोई खास नहीं है तो उस खास के मिलने की आस जगाने लगता है । जीवन में प्यार तो सभी करते हैं लेकिन किसी से सच्चा प्यार करना, उसे जीवनसाथी के रूप में पाना, उन चन्द लोगों के हिस्से में आता है जो सच्चे प्यार की कसौटी पर खरे उतरते हैं और जो खुद को हमेशा वफादार और लायक साथी साबित करते हैं । सच्चा प्यार वो होता है जो वक्त और हालात के साथ न बदले । प्यार ढाई अक्षर का यह शब्द न जाने दिल को कितने अहसास करा जाता है । शायद इसलिये कि प्यार गुलाब की पंखुड़ी पर ठहरी ओस की उस नाजुक बूंद के समान होता है जिसको सहज कर रखने में तमाम उम्र निकल जाती है, प्यार शब्द ही ऐसा है जिसके ख्याल मात्र से शरीर में अजीब सी सिरहन हो उठती है । क्या कोई यह कह सकता है कि उसे कभी प्यार नही हुआ । नहीं यह वह भावना है जो हर दिलों में पलती है । यह भावना है क्या ? भाव, संबंध या वस्तु ? शायद थोड़ा–थोड़ा सब कुछ, या इनमें से कुछ भी नहीं । किंचित कुछ ऐसा भी हो सकता है, कि जिसने, जिस रूप में चाहा हो, उसे उसी रूप में दिखाई पड़ता हो । हम जिस रूप के अभिलाषी होते हैं, प्रेम हमें उसी रूप में प्राप्त होता है । हमारी आकांक्षा और अनुमान के अनुरूप ।

किन्तु यह ढाई आखर हमेशा अधूरा क्यों रह जाता है ? क्यों नहीं मिलता सबको प्रेम ? क्यों मिलकर भी दूर चला जाता है प्रेम ! सुख देकर क्यों दुख दे जाता है, प्रेम ? हम जितना उसके पीछे भागते हैं, वह हमसे उतना ही दूर क्यों चला जाता है ? ढाई अक्षर का प्रेम ! जो समूल प्रकृति और उसके संपर्क में आने वाले सबको अपने में समाहित किए रहता है । बिना किसी द्वेष और बिना किसी राग के । एकात्मकता के सूत्र में बांधकर चलना चाहता है, चिरकाल से, अविरल, और अंनत की ओर । यह यात्रा उस अनंत परमेश्वर के ढाई पग का ही विस्तार तो नहीं, को समस्त ब्रह्माण्ड को अपने ढाई पग में नाप कर, ढाई अक्षरों में परिवर्तित कर दिया हो । जिसके आकर्षण में बंधा प्राणिमात्र अपनी मुक्ति की तलाश में फिरता है । और उससे लिपट कर ही अपने जीवन का ध्येय पाना चाहता है । कभी संबंध में, कभी पदार्थ में और कभी भाव में ।

प्रेम यदि संबंध है, तो उसका दोनों तरफ से होना आवश्यक है। एकतरफा तो भक्ति होती है । यदि वस्तु है, तो वह प्रतिदान चाहती है । प्रेम भिक्षा नहीं होती, कि किसी ने झोली फैलाई और किसी ने भर दी । वह प्रेम के प्रत्युत्तर में प्रेम ही चाहता है, इसलिए उसे उसका प्रतिदान चाहिए होता है । जो उसके अंतस की रिक्तता को सिक्त करता है । उसके खालीपन की भरता है, और प्रेमी के पास न होने पर भी उसकी उपस्थिति का बोध कराता रहता है । यदि हम प्रेम को भाव रूप में ही स्वीकार लें । तब भी वह समर्पण मांगता है, मन का समर्पण । उसके प्रति मृदुल कल्पना में जीवन और कटु अनुभव में प्रेरणा के रूप में उपस्थित रहता है । तिकत्ता में मधुरता और निराशा में आशा बनकर फूट पड़ता है, प्रेम ।

प्रेम सृष्टि के कण–कण में विद्यमान है, हमारे मानवीय व्यवहारों में अन्यान्य रूप में दिखता है, प्रेम । जड़ और चेतन के साथ – साथ निसर्ग, निश्छल प्रेम दिखता है, नदी की धारा में, सागर की लहरों में, पक्षियों के कलरव में, धूप और वर्षा में । किसी की यादों, किसी के पास होकर भी हम नहीं महसूस कर पाते और किसी से बहुत दूर रहकर भी धड़क उठता है दिल, उसकी एक सांस को महसूस करने हजारों कोस चली जाती है, हमारी सांस। प्रेम बताया नहीं जा सकता। उस मापा नहीं जा सकता किसी मीटर में। उस पाया भी नहीं जा सकता किसी भौतिक मूल्य चुकाकर । तभी कबीर को भी कहना पड़ा होगा, कि ‘ प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ‘।
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(डा. श्वेता दीप्ति त्रिभुवन विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य की उप–प्राध्यापक हैँ ।)

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