• २०८१ श्रावाण ११ शुक्रबार

खमोश वक्त

चेतना शर्मा

चेतना शर्मा

ऐ वक्त,
तू आज इतना मुराझाया सा क्यों है ?
यह तेरी बेबसी है या कोई सौदा,
चलता हुआ तू आज रुका सा लग रहा है,
यह तेरी दिल्लगी है या कोई नशा ?

हर सुबह तेरी तबस्सुम से,
जो नमी बिखरती थी,
वह आज गुम हो रही क्यों है ?
हर शाम तेरे एहसास से ही,
न जाने कितने नज्म बनते रहते थे,
आज पता नहीं क्यों,
लिबास बदलकर चलने लगा है तू ।

उलझन में तो हम हैं,
क्या तेरे न होने का,
जश्न मनाए या हताश हो जाएं ?

इर्द–गिर्द मडराती धूल देखो,
आज चौखट पर हिचकती सी बैठी है,
तुम्हारे साथ यह भी तो खामोश हैं ।

तेरे चेहरे पर चढ़ी हुई बेबसी,
टटोल रही कुछ और है,
कुछ अनकही बातों पर,
देखो खाहमखाँ परेशाँ है तू,
ऐ वक्त तूने अब तो,
इस्तहार लेना ही बन्द कर दिया है हमारा ।

सिर्फ हमीं से क्यों,
हिसाब मांगता है तू,
शायद तुझी से हमने,
कुछ लम्हे उधार लिए थे कभी,
वो लम्हे बड़ी शिद्दत से पूछते हैं,
क्यों रैन गुजरती नहीं आजकल ?

देखो जरा,
अनसुनी रह गई थी जो दास्तान,
वो गुफ्तुगु की चाह में है,
चलो आओ,
ऐ वक्त कहीं चलते हैं,
जहाँ पर परिंदे नाच रहे हाें,
और लहराते पत्ते मौज में हों,
जहाँ तेरी परछाई से,
हम भी चल सकें,
और फिर नया आशियां बना सकें ।

(कवि शर्मा नेपाली भाषा के अतिरिक्त हिन्दी भाषा मेँ भी कथा और कविताएं लिखती हैँ)
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