हर मुद्दे पर विमर्श करने वाला मन
जब खुदकी तरफ घूमता है
कितना टेढ़ा मेढ़ा हो जाता है
मैगी जैसे…
मस्तिष्क की नसों में कितना विष भरा है
कितनी बेचैनियाँ नृत्य करती हैं
सोचती हूं सारी नसों से विष निचोड़ कर
किसी बुद्ध.. किसी मीरा के आँचल के कोने में
गठिया दूँ…
कुछ इस तरह बरसाना चाहती हूं
कि दीप जले आत्मा में
विकृतियां तिरोहित हों ऐसे
जैसे दिए का जलना और मोम का पिघलना…
मन के बियाबान से
उन लताओं को खींच लेना चाहती हूं
जो सभ्यता के नाम पर
अपने अहंकार को विस्तार देती हैं…
उस नब्ज़ को पकड़ लेनाचाहती हूं
जो बोती हैं – ईर्ष्या, अहंकार, एकाधिकार
और न जाने क्याक्या… !
मैं नोच फेंकनाचाहती हूं
उनउनविषमताओं को
जो मुझमें दर्प भरती हैं…
मैं संसार के चौखट से विदाहोने से पहले
पूज लेना चाहती हूं
मुझमें बैठे परमात्मा को…
मै नहीं चाहती
अपने दोषों की गठरी किसी और के कंधे पर डाल
मुक्ति का आवरण ओढूं…
मैं महसूस करना चाहती हूं मिट्टी को
मिट्टीकी देह से..
कहां कुछ बचता है
कहने या सुनने को…
मनुष्यअपने सरलपने को
युद्ध में क्यूँबदलता है…?
अगर सारे विमर्श
खुद से होकर गुजरता…
तो शायद खत्म हो जाते
ये अपराध के तांडव… ये युद्ध की विभीषिका
बचजाता शुद्ध हृदय मानव
बिखेर देता करुणा.. स्नेह… प्रीत..
मै चाहती हूं मन की घनघोर चालाकियों के बीच
बचा रहे विशुद्ध मानव…
सरिता अंजनी सारस, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश, भारत