• २०८१ पौष २९ सोमबार

अहाँक आदर्शमे तीतैत हम

बसन्त चौधरी

कोम्हर हेरा गेल कोपरक मुस्कान ?
किएक मलीन अछि फूलसभ फुलाएब छोडिकऽ ?
की भेलैक पृथ्वीक प्राङ्गणमे आई ?
किएक निहारैत अछि निच्चामूहेँ मतरेगनसभ ?
किएक खसैत अछि आकाश, नोरमे अपनाकेँ बहबैत ?

किएक धुमिल धूवाँसँ छराएल आकाश
विरहजनीत विषादसँ ब्रह्माण्डहि झँपाएल
देखितहिँ–देखैत हमर अस्तित्वहि
बालु भऽकऽ किन्हेरमे छितरा गेल ।

वृक्ष छल, हरियर छल, शीतल छल
अहाँ छलहुँ, खुशहाली झिलमिल छल
हम ककरहु की सुनबितहुँ अपन दुःख
हमर आँखि नोरसँ टिलपिल छल ।

रौद आगि छल
हम एकसरिए मरुस्थलक बाटपर चलि रहल रही
पएर नहि पाकल तँ अकचका उठलहुँ
हम तँ अहाँक स्मृति ओढने रही
ओहि क्षण छल श्रीहीन कुवेरक खजानाक हीरा सेहो
हम अहाँक ओ माथक घाम देखैत हेराएल रही ।

अहाँ छलहुँ आ आँट छल, जीवन छल
अहाँ नहि छी, जीवनहि ओदरि गेल जीवनसँ
देखितहिँ–देखैत छाउर भऽ गेल आस
मुदा अहाँक आदर्शक आभा छुटल नहि हमरासँ ।

हृदय भीतर जाबतधरि रहत अहाँक शान्त छविक बास
विना साँसोक हम जीबि सकैत छी
से अछि हमर दृढ विश्वास
हमर बाबूजी !
एहि आकाशसँ असीम अछि, कएक गुणा असीम
अहाँक श्रद्धासँ सुसज्जित हमरा भीतरक हमर आकाश !

(बसन्त चौधरीको कवितासंग्रह ‘वसन्त’ बाट साभार)