नेपाली साहित्य का चिरपरिचित नाम है भवानी भिक्षु । भवानी भिक्षु मानव जीवन के रहस्यों को छूने और भावुकता में रमने वाले कथाकार थे । उन्होने अपनी रचनाओं में नेपाली समाज के यथार्थ को और मानव मन की छोटी–छोटी भावनाओं को समेटा और उसे शब्द दिया । समाज और जीवन के अनेक पक्षों को अपनी कथाओं का विषयवस्तु बनाया साथ ही नर–नारी के बीच के परस्पर सम्बन्ध, आकर्षण और प्रेम का भी मनोवैज्ञानिक तरीके से व्याख्या किया है । उनकी तीन चर्चित कहानियाँ हैं— ‘त्यो फेरि फर्कला’, ‘गुनकेसरी’ और ‘मैयाँसाहेब’ । आधुनिक नेपाली कथा साहित्य में दो नाम प्रमुखता के साथ लिया जाता है, गुरुप्रसाद मैनाली और विश्वेश्वरप्रसाद कोइराला । इन दो नामों के पश्चात् जो नाम नेपाली साहित्य में स्थापित है वह है, भवानी भिक्षु । नेपाल के पश्चिमी तराई के स्थानीय जन जीवन को लेकर आपने कई रचनाएँ की हैं । भाषा आम तौर पर कठिन होती थी । ‘मैयाँसाहेब’ में राणाशाही के समय की झलक मिलती है । ‘मैयाँसाहेब’ कई मायनों में इनकी एक उत्कृष्ट रचना है । कोमल मन की भावनाएँ, दूसरी औरत या सौतन के प्रति की ईष्र्या, युवावस्था में पनपा प्रेम और उच्चवर्ग का अहम् यह सब इस कथा में उभर कर आया है । सभी पात्रों की मानसिकता की व्याख्या कथाकार ने सफल तरीके से की है ।
कहानी महारानी की है जो एक विशिष्ट परिवार से ताल्लुक रखती है । उसके दो बेटे और दो बेटियाँ हैं और साथ ही एक सौतेली बेटी, जिसे वह इसलिए इतना मान देती है कि उसमे मान सम्मान को देखकर उसकी माँ अर्थात् उसकी सौतन को यह अहसास हो कि वह अपनी ही बेटी से कितनी तुच्छ है । वह दूसरी औरत है इसलिए मान सम्मान की हकदार नहीं है किन्तु उसी की बेटी को यह सम्मान प्राप्त है । महारानी इसलिए ऐसा करती है ताकि सौतन को अप्रत्यक्ष किन्तु निरन्तर इस चेतना से पीड़ा मिलती रहे कि उसकी बेटी होने के बावजूद वह एक विशिष्ट उपलब्धि है, लेकिन माँ होने के बावजूद बेटी की ही तुलना में हीन है, घृण्य है, बौनी है, छोटी है । एक अव्यक्त पीड़ा का बोध उसे होता रहे । यहाँ तक की इस पीड़ा में वह अपनी बेटी को भी शामिल नहीं कर सके । यह सच है कि उसक िबेटी उस घर की सन्तान थी, लेकिन यह भी सच है कि उसकी तुच्छता का अहसास करा कर उसे महारानी ने अकेला कर दिया था । यह पीड़ा उसकी अपनी पीड़ा थी । निश्चय ही यह पीड़ा अनूठा मनोवैज्ञानिक सृजन थी । एक औरत अपने पति की जिन्दगी में दूसरी औरत को कदापि बर्दास्त नहीं कर सकती है । अगर परिस्थितिवश स्वीकार कर भी ले तो उसके प्रति पूर्णरूप से उदार नहीं हो सकती है । महारानी भी एक ऐसी ही औरत है जो पति का विरोध तो नहीं कर पाई लेकिन सौतन की बेटी को अपना कर उस दूसरी औरत को अकेला कर के प्रतिशोध लेती है और उसे मानसिक तौर से पीडि़त करती है ।
‘मैयाँसाहेब’ की मुख्य किरदार है महारानी की सौतेली बेटी जिसे उसके पालन पोषण के हिसाब से ही नाम दिया गया है, मैयाँसाहेब । किन्तु उसमें महारानी की बेटियों की तरह अहंकार और दर्प नहीं था, वह मानवता के अधिक करीब थी । उसमें अहंकार का विष भी नहीं था और मनुष्य को नीचा दिखाने या तुच्छ हीनता बोध कराने की भावना भी नहीं थी ।
दूसरा मुख्य पात्र है अजय जो उस परिवार में काम करने वाले एक अधिकारी का पुत्र था । अजय बचपन से मैयाँसाहेब के साथ खेला करता था । दोनों करीब थे किन्तु उनमें उस वक्त वो भावना नहीं थी जिसे प्यार शब्द दिया जा सके । किन्तु वक्त के साथ साथ उनके बीच आकर्षण ने जगह बनाना शुरु कर दिया था । अजय यह भूलकर कि उसके और मैयाँसाहेब के बीच कोई समानता नहीं है उसके करीब होता चला जाता है । रोकती मैयाँसाहेब भी नहीं है । वे दोनों जानते थे कि वो एक दूसरे से कुछ चाहते हैं पर उन्हें यह भी अहसास था कि वो जिस ओर बढ़ रहे हैं वहाँ कोई मधुरतम सम्मिलन के आगे लौकिक, सामाजिक और सबसे ज्यादा छोटे बड़े की स्तरगत दीवार है जो धारदार, कठोर और निर्दयी है और जिसमें कोई बड़ा अनर्थ भी निहित है । किन्तु यह भावना अधिक समय तक टिकी नही. रह पाती है । कथाकार यहाँ सफल हैं युवावस्था की चंचल प्रवृत्ति को व्याख्यायित करने में । ये वो उम्र होती है जहाँ बन्दिशें और भी साहस बढ़ाती हैं । जिस चीज के लिए उन्हें रोका जाता है वही वो किसी भी हाल में पा लेना चाहते हैं । मैयाँसाहेब और अजय के बीच भी ऐसा है कुछ है । किसी अव्यक्त पीड़ा, प्रभाव मजबूत आकर्षण और विश्वास की भावना ने जगह बना ली है । युवावस्था की यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है । पर कथाकार यहीं नहीं रुकता, वो उस मानसिकता को भी देखता है जो किसी के पालन पोषण के फलस्वरूप व्यक्ति के स्वभाव में शामिल हो जाता है । मैयाँसाहेब और अजय एक दूसरे के करीब हैं लेकिन मैयाँसाहेब जिस अभिजात्य वर्ग से है वह समय–समय पर इन दोनों के बीच आ जाया करता है । मैयाँसाहेब अस्वस्थ होती है । अजय को जब पता चलता है, तो वह परेशान हो उठता है और दौड़ा चला आता है मैयाँसाहेब का हाल देखने के लिए और जब वो मैयाँ से पूछता है कि आपकी तबीयत ठीक नहीं है क्या, क्या हुआ ? तो मैयाँसाहेब बोलती है कि अजय ∕ इस तरह पूछना नहीं सुहाता है, दरबार में तुम्हारा इतना आना–जाना है, बात करने का सलीका तो पता होना ही चाहिए था । पूछो, हुजूर आपकी तबीयत ठीक है या नहीं ? यह घटना बताती है कि मैयाँसाहेब भूल नहीं पाती है कि वो किस वर्ग से आती है । अजय को अचानक लगता है कि कुछ गलत हो रहा है । अभी तक की सारी चेतना, सारी प्राप्ति में कहीं सामंजस्य स्थापित नहीं किया जा सकता है । अचानक उसे अपनी साधारण गृहस्थी, घर और रहन–सहन की याद आई, अपने कपड़ों पर दृष्टि गई । फिर भी वह मैयाँसाहेब से पूछने की हिम्मत करता है कि क्या हमारे बीच प्यार नहीं है, क्या आलिंगन और चुम्बन…। वो यकीन नहीं कर पाता कि उनके बीच अभिजात्यता की कोई जगह है । किन्तु यहाँ भी उसका भ्रम टूटता है मैयाँसाहेब उसकी इस बात पर नाराज हो जाती है और कहती है कि तुम तो अनुमान से भी अधिक निचले श्रेणी के व्यक्ति होते जा रहे हो ।
एक अन्र्तद्वन्द्ध दोनों के मन में है । अजय जिस परिवेश से है वहाँ वो किसी भी रूप में मैयाँ साहेब को नहीं देख रहा है, परन्तु उसे लगता है कि प्यार में इन बातों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए । मैयाँसाहेब अजय को चाहती है किन्तु वह अपने दायरे से बाहर नहीं निकल पाती वह स्वयं अजय के सामने स्वीकार करती है और अजय से कहती है कि अजय मैं तुम्हारे प्यार को अस्वीकार कर आज दूसरी भूल नहीं करना चाहती, प्यार किया है, करती रहंूगी, लेकिन है तो गलती ही । यद्यपि पता नहीं किस कारण से मैं तुम्हें प्यार करने से स्वयं को रोक नहीं पाई । इस मानसिक पीड़ा और त्रास के बीच दोनों विचलित हैं ।
अजय की शादी हो जाती है । अजय मैयाँसाहेब से कहता है कि शादी माता–पिता ने करवा दी । यह कह कर शायद वो मैयाँसाहेब की निगाहों में बना रहना चाहता है । यहाँ उसका स्वार्थ आगे आता है किन्तु मैयाँसाहेब का उज्ज्वल पक्ष सामने आता है । वह अजय को डाँटती है और कहती है कि अजय प्यार का अपमान मत करों । मैं तुम्हें तुम्हारी पत्नी के साथ दोगुना प्यार करती हूँ । यह भावना मैयाँसाहेब के निःस्वार्थ प्यार को दर्शाता है । वह जानती है कि अजय उसका प्राप्य नहीं है, पर वह स्वीकार करती है कि इसके बावजूद वह अजय को प्यार करती रहेगी हमेशा ।
अजय शादी तो कर लेता है परन्तु अपनी पत्नी से प्यार नहीं कर पाता यह बात जब मैयाँसाहेब को पता चलती है तो वह एक बार फिर अजय को दुत्कारती है कि तुम कैसे इन्सान हो, पत्नी का शरीर तो हासिल कर लिए किन्तु उसे प्यार नहीं कर पाए । अजय और मैयाँसाहेब की मानसिकता में बहुत फर्क है । दोनों की मनःस्थिति एक अलग धरातल पर चल रही है । समय बदलता है मैयाँसाहेब की शादी उसकी हैसियत के अनुसार एक प्रौढ़व्यक्ति के साथ हो जाती है । समय परिवर्तित होता है । मैयाँसाहेब की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं रहती । किन्तु उसके बाद भी वह अपने उसी आवरण में जीती है । अजय यह देखकर क्षुब्ध होता है । उसे लगता है कि वह कभी मैयाँ साहेब को प्रभावित क्यों नहीं कर पाया । और एक दिन वह भी आता है जब मैयाँ साहेब का आवरण हटता है और वह कह बैठती है कि अजय तुमने तो मुझे प्यार किया था न फिर मुझे पा क्यों नहीं सके ? क्यों अपना अधिकार जता नहीं पाए ? काश तुमने ऐसा किया होता । अजय स्तब्ध है कि जिन्दगी के इस मोड़ पर आकर यह क्या कह दिया उसने । वक्त पर से जब पकड़ छूट गई तब ये सच क्यों सामने आया ? मैयाँसाहेब अजय को छोड़ विदेश चली जाती है पर जाते–जाते अजय को एक मात्र बची हुई हीरे की अँगूठी दे जाती है ।
कथाकार पूरी कहानी में मैयाँसाहेब को जिस आवरण या सामाजिक बन्धन के तहत बाँध कर रखता है अंत में उसकी परतें हट जाती हैं । नारी–मनोविज्ञान का एक रूप सामने आता है कि वह सामने वाले से यह अपेक्षा करती है कि वो स्वयं आगे बढ़े और अपने अधिकार का प्रयोग कर उसे प्राप्त करे । कहीं ना कहीं उसे मानसिक तुष्टि मिलती है कि उसकी जरूरत सामने वाले को है और यह सोच उसकी संतुष्टि का परिचायक भी बनती है ।
कथाकार की भाषा कुछ दुरुह है किन्तु कथा का ताना–बाना कुछ ऐसे बुना गया है कि उसमें मन बह जाता है । प्यार में त्याग, कर्तव्य और अधिकार ये सभी मायने रखते हैं और यही पुष्टि कथाकार ने की है । अगर कुछ खटकता है तो क्लिष्टता बाकी भाव, शैली, चित्रण और अभिव्यक्ति इन सब में भिक्षु सफल हुए हैं और मैयाँसाहेब नेपाली साहित्य में इन्हीं खूबियों के कारण स्थान बनाने में सफल हो पायी है ।