कविता

हजारीबाग मेरे लिए सिर्फ एक शहर नहीं है, मेरी आत्मा बसती है वहाँ ।परिस्थितियों ने मुझसे मेरा शहर छीन लिया । कोरोना के विशद प्रभाव ने समाज पर ऐसा प्रभाव डाला कि अपनों से अपने छूटते चले गये । माले का मोती क्या निकला, पूरी माला बिखर गयी । स्नेह का धागा जो कई दशकों से अपनी मजबूती पर गर्व करता था पल भर में टूट-टूट कर विनष्ट हो गया ।
चूँकि हजारीबाग शहर मेरे रोम रोम में बसा है, मेरी विश्व स्तर पर प्रकाशित रचनाओं में हजारीबाग शब्द झलकता है । शहर का स्नेह, वहाँ बीता मेरा बचपन, वहाँ की शिक्षा मेरे शब्दों को परिवर्द्धित एवं परिमार्जित करते हैं । मेरे अक्षर हजारीबाग की हवाओं में साँस लेते हैं ।
हजारीबाग में मुझे मेरे पिता की छवि मिलती है, मैं अपने पिता के श्रम को महसूस करता हूँ । हवाओं से मुझे अपने पिता की सुगंध मिलती है । ऐसा लगता है जैसे मेरे पिता बाँह फैलाये खड़े हैं और मैं हजारीबाग पहुंचकर उनके गले से लग जा रहा हूँ । पिता के गले लगने का सुख पुत्र के लिए सुख की पराकाष्ठा है, अमरता का वरदान है, सारे दुःख झट से छूमंतर हो जाते हैं ।
मेरे कुछ तत्कालीन अपनों की याद भी आती है मुझे, भूलता नहीं हूँ, जिन्होंने रिश्तेदारी को, अपनों को परिभाषित किया । मनुष्य को इस घोर कलियुग में कैसा होना चाहिए बताया । छल शब्द का व्यावहारिक रूप से विशद विश्लेषण किया । लगभग पाँच वर्षों के लंबे अंतराल के बाद कुछ दिनों पूर्व हजारीबाग जाने का अवसर मिला । ऐसा लगा जैसे बरसों से बिछड़े अपने अभिभावक से गले मिल रहा हूँ, बड़ी सुखद अनुभूति हुई, निःशब्द हूँ ।
अनुभूति हुई प्रेम की,अपनेपन की, स्नेह की जीवंत धार ने मुझे सराबोर कर दिया । मिला शहर की हवाओं से, अपने बचपन से, अपनी युवावस्था से ।।।मन गद्गद हो गया । जोश और उत्साह इतना महसूस करने लगा जैसे किसी बरसों के रोगी को स्वास्थ्य अमृत मिला और पाँव पंख बन गए । अपने कुछ अभिन्न मित्रों से नहीं मिलना बहुत बड़ा पाप हो जाता । किसी तरह समय निकालकर अपने कुछ ही मित्रों से मिल पाया, कई मित्र छूट गये, मैं उनसे हाथ जोड़कर क्षमा मांगता हूँ, अगली बार अवश्य मिलने का प्रयास करूँगा ।
सबसे पहले हजारीबाग पहुँच कर मैं झील की ओर गया । ज़िला स्कूल एवं हमारे समय के स्नातकोत्तर विभाग को देखा । पुरानी स्मृतियों के स्पंदन को हृदय में महसूस किया, कुछ तस्वीरें ली और फिर निकल पड़ा अपने एक मित्र मुकेश से मिलने जो मेरे विद्यालय काल का परम मित्र था, लंबी बातें हुईं फिर महाविद्यालय काल के मेरे अग्रज सरदार मंजीत सिंह सलूजा जी से गुरु गोविंद सिंह रोड में मिला और विभिन्न विषयों पर लंबी बातें हुईं । कुल्हड़ की चाय ने स्फूर्ति को पुनर्जीवित किया और विषयांतर भी हमने बहुत सारी बातें की ।
अपने अभिन्न मित्र प्रकाश से नहीं मिलना शायद ईश्वर भी माफ नहीं करता क्योंकि लंबे समय से उसके स्वास्थ्य को लेकर मैं काफी चिंतित था । जबरा स्थित उसके आवास पर उसके स्वास्थ्य पर चर्चा के बाद चाय और पकोड़े के साथ वर्त्तमान शिक्षा पद्धति, बच्चों के उचित मार्गदर्शन आदि विषयों पर लंबी वार्त्ता हुई । कुछ व्यक्तिगत पारिवारिक बातें भी हुई । बेटी मनस्वी, बेटी दिव्यानी एवं भाभी जी से भी विभिन्न विषयों पर बातें हुईं ।
संत कोलंबा महाविद्यालय रूपी मंदिर में प्रवेश कर उस धरती को नमन किया जिसने मुझे नैतिकता का पाठ पढ़ाया, संवेदनशील बनाया, कूट कूट कर ईमानदारी एवं राष्ट्रभक्ति को मुझमे बोया । मैं हजारीबाग की मिट्टी का सदा ऋणी रहूँगा ।
शत- शत नमन हजारीबाग !!
अनिल कुमार मिश्र
राँची, झारखंड, भारत ।