• २०८१ कातिर्क २३ शुक्रबार

एक बार फिर

अनीता अग्रवाल

अनीता अग्रवाल

एक बार फिर वह
सोच रही है
अपनी जिंदगी के बारे में
झुग्गी में
बर्तन मांजने से
सुबह की शुरूआत करती हुई
और
टूटी खाट की
लटकती रस्स्यिों के
झूले में
रात को करवट बदलने के बीच
जीवित होने का
अहसास दिलाने के लिये
क्या कुछ है शेष । !!


अनीता अग्रवाल