• २०८१ कातिर्क २४ शनिवार

एक अनकही कहानी

धनराज गिरी

धनराज गिरी

अंगराज कर्णको जब अर्जुनने बध किया तब खुद अर्जुनको भी ग्लानी हुई थी । इधर गान्धारीनन्दन दुर्योधन थका हारा चला गया रात के सन्नाटें में पितामह भीष्म के पास । आहट से ही पहचान लिया पितामह ने, बोले, “अब किसलिये आये हो पुत्र दुर्योधन, किसलिये ?” बहुत रोया सुयोधन, गिडगिडाया, बोला, “पितामह, क्या दोष सिर्फ मेरा ही था रु अधर्म के रास्ते पर ही चलाथा मैं रु मैने अपनी जिन्दगीमें कोई अचछा काम नहीं कियां था रु इतना बुरा था मैं रु आज तो सच बोलिये पितामह, आपने हरदम पाण्डवका ही पक्ष क्यूँ लिया ?” सन्नाटा, कुछ सोच में पडगये पितामह, सहम कर बोले, “मेरे पास आवो पुत्र दुर्योधन, मेरे पास आवो ।

तेरे सर पर हाथ रखकर आज मुझे कुछ कहना है । अनकही कई कहानियाँ है मेरे पास, इधर आ जा युवराज दुर्योधन, इधर आजा” पावों छोडकर सर के तरफ गया सुयोधन । गालपर हाथ रखा पितामह ने, सर पर भी , बोले, “पुत्र दुर्योधन, तूम बेकसूर हो । हस्तिनापुर बेकसूर है । सारा कसूर मेरा है, ये हिज्र भी देखी है तारिखकी निगाहों ने, लम्हों ने खता की थी शदीयोंने सजा पाई” बेटा, ये जो “मोह” होता हैन बेटा, बहुत जालिम होता है, पिताश्री महाराजका हालत मुझेसे देखा नहीं गया । माँ गंगा तो मुझे भी गंगामे समाहित कर देती पर पिताजीने अपनी कसम तोडकर मेरी प्राण बचाई, ये कहानी जानकर मैं उनका एहसानमन्द हो गया । कर्जदार समझा अपने आपको । जवान देवव्रत के मन में पिता महाराज शान्तनु के लिये निस्सीम मोहबत और सम्मान था ।

दासराज के आगे मैं हार गया । भीष्म प्रतिज्ञा करली, तबाहीका आगाज वहीं से हुआ । आने वाले युग में भूले से भी कोई इन्सान भीष्म प्रतिज्ञा ना करे,मैैं ही मुजरीम हुँ । उसके वाद दुसरा भूल, विदुर की बातों मे आकर मैने पाण्डुको राजा बनाया । मेरा पुत्र धृतराष्ट्र सिर्फ आँखसे अन्धा था, ज्ञान से नहीं । उसके उपर भी अन्याय हुआ । अगर विदुरकी बातें टालकर सिंहाशन पर धृतराष्ट्रको बिठाया होता तो ये सब दिन देख्ने नहीं पडते । सारा कसुर मेरा हे बेटा, मेरा । तेरा दिल गंगा जल की तरह पाक है । लेथिन कुलबधु द्रौपदी पर जो अत्याचार हुआ, उस पाप का प्रायाश्चित, देख मै भुगत रहा हुँ । क्षेत्रीय धर्मका पालन करो पुत्र, अब जो हुआ, सो हुआ, विदुर, अक्सर, कहाँ करता था, जो होना है वो होना है, जो नही होना है, वो नहीं होना है” होनी को कौन टाल सकता है बेटा, उस दिन स्वयम् नारायण आये थे शान्तिदूत बनकर, तेरे अहंकार ने उन्हे मायावी ग्वाला समझा । देवकीनन्दनका आशीर्वाद के बगैरह यहाँ पत्ताभी नही हिलता पुत्र, पत्ता भी नही हिलता ।

तू अब आत्मसमर्पण नहीं कर सकता जावो युद्ध करो । आज तुझे मैं न विजयी भव कह सकता हूँ न “आयुष्मान भव: ” अब मुझे आराम करने दे, बहुत थका हुँ मैं । “दो चार सवाल और करना हैं पितामह ।” “और पुछने को रहा ही क्या है पुत्र दुर्योधन, रहा ही क्या है ?” “मेरा पहला सवाल, मेरा राधेय जब कौन्तेय था तो यह राज आपको भी मालुम होना ही चाहिये, आप त्रीकालदर्शी हो, क्या आपको मालुम था पितामह, मुझे ऐतवार है आज आप झूट नहीं बोलेङ्गे ।” “मुझे सबकुछ मालुम था पुत्र, देवकीनन्दन और मै, इस राज से वाफिफ थे ।” “तब आपने मुझे क्यूँ नहीं बताया ? हस्तिनापुरको क्यूँ धोखे में रखा , शबब क्या था पितामह, क्या था शबब रु क्यूँ विवश थे आप रु अगर मुझे मालुम होता की मेरा मित्र दानवीर कर्ण कोन्तेय है तो मैं खुशी होता । बडे भाई धर्मराज कोई विवाद नहीं करते ।

हम सब मिलकर रहते । न लाछा गृह, न द्यूत कृडा, कुछ भी न होता । द्रोपदी भाभी मुझे “अन्धाका पुत्र अन्धा भी नहीं कहती, आपने ईक सचको छुपाकर सारे हस्तिनापुरको ही गुमराह िकया पितामह, गुमराह किया ।” “बेटा दुर्योधन उसी पापका तो फल मिल रहा है मुझे । गुनाह पर गुनाह करना ही मेरा नसीब बना । और बेटा, नारीका मर्यादा सबसे जियादा महत्वपूर्ण होती है । कुन्ती की इज्जतका सवाल था । अगर वो चाहती तो यह उल्झनसे कर्ण मुक्त हो जाते । कुछ बातें अजीव होते होते है बेटा दुर्योधन । आज तुने पुछा तो झूट कह नही सका । कुन्ती, कृष्ण और मैं हम तीनौं दोषी है । देवकीनन्दन ने भी कर्ण को बताया, लेकिन पाण्डवौंको बता नही सके । क्षमा करना बेटा, शायद, विधिका यही विधान था । वही हमें, नचा रहा था । डोर उसी के हाथ में है ।” “दुसरा सवाल पितामह, क्या मेरा मित्र कर्ण अर्जुन के एक चौथाई वीर था ? क्या सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन ही था ? है ?” “नही पुतर नही, मैंने गुस्से में आकर यह सब कहा था । कुलबधु, द्रोपदीको भरी सभा में अंगराज नै “वेश्या” कहा, ये अक्षम्य अपराध था ।

कर्णका तेजोबध करने के लिये मैने यह कह दिया । कोई भी परशुराम शिष्य किसी से कम नहीं होते । सूर्यपुत्र कौन्तेय के सामने अर्जुन आधा था, चाहते तो कर्ण अर्जुन का बध भी कर सकते थे, एक कर्ण ने ही मेरी बनाई हुई युद्धकी नियमको नहीं तोडा । मुझे नाज है, व्यासजी ने एक बार शकुनि से सच कहा था, गर्व करो शकुनि, तूम उस युग में पैदा हो गये हो जिस युगे में कर्ण जैसा शूरवीर योद्धा पैदा हुवा है “और फक्र करो पुत्र दुर्योधन तुमहारा मित्र अंगराज कर्ण पूरे भारतबर्ष के लिये एक धरोहर बनेगें । कलियुग में उनका नाम आदर के साथ लिया जायेगा । अब जावो पुत्र । कल फिर भीमसेनका सामान करना है तुम्हे ।” अनकही कहानी सुनकर उदास दुर्योधन लौटा ।


धनराज गिरी


अस्वीकार

फरेब हैं आँखें

मुखुण्डो