• २०८१ फागुन १ बिहीबार

प्रेम, त्याग, मैं और तुम

प्रदीप्त प्रीत

प्रदीप्त प्रीत

प्रेम
दिन- ब- दिन बढ़ रहा है
मेरे लिए,
तुम्हारा प्रेम
जैसे दिन और दिन-
रंग- बिरंगे वसंत के
बढ़ रहा है मेरे सपनों का आकार
वैसे ही बढ़ती जा रही है
हँसते हुए चेहरों को देखने की अभिलाषा
दूर कहीं दूर
सुनाई देती हैं सिसकियाँ
ऐसे ही वे भी रो रहे थे,
एक दिन
जब छीना जा रहा था
उनके जीने का एकमात्र मक़सद ।

त्याग
चलो त्याग करते हैं
अपने सपनों का त्याग
जैसे मुस्कुराते हुए छोड़ देते हैं
गुब्बारे बेचते मासूम हाथों में छुट्टे ।
तुम और मैं

मैं और तुम
बनाएंगे नई दुनिया
जहां सपने साकार होंगे
आज़ाद होगा बचपन,
तुम सिखाना
मासूमों को चमकने की कला इस क़दर
कि आकाश भी आए माँगने
इन चमकते सितारों को,
अपने कम होते जुगनुओं के बदले,
मैं सितारों के बीच में
अपने चाँद को देखते हुए बनाऊँगा
इनके लिए रोटियाँ ।


प्रदीप्त प्रीत
इलाहाबाद उत्तर प्रदेश


प्रेम

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आहना