किसी के कान में
फुसफुसा कर कहे गए शब्द हों
या अधूरी नींद की बुदबुदाहट
भीड़ में टहलती चुप्पियाँ हों
या दीवारों पर सिर पटकते अवसाद
कटे- फिटे
थके- हारे
ख़ून और मवाद में लिथड़े शब्द ही क्यूँ न हों
कविता सबको पनाह देती है
और अगर आख़िरी बार का रोना याद हो
तो ये दिन इतने भी बुरे नहीं
कह कर
कविता मुस्कुराती है ।
शैलेंद्र साहू, मुम्बई महाराष्ट्र