हिन्दी कविता

किसी रोज़ परिंदा बन जाऊँ
फ़लक पे दूर तक घूम आऊँ
चाँद मुझको अच्छा लगता है
उड़ के जाऊँ उसे चूम आऊँ
सुना है इश्क़ में बड़ा मज़ाक है
क्या तेरा आशिक़ बन जाऊँ
तू और अच्छी लगने लगेगी
गाल पे तिल सा खिल जाऊँ
गर तू मुझे गुज़रे में लगाए तो
सचमुच फूल सा खिल जाऊँ
मुकेश इलाहाबादी
इलाहाबाद