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मां ! बच्चों की
सांस–सांस में बसती
जब तक वे होते नादान
परंतु होश संभालते ही
खो जाते हैं
वे स्वप्निल, स्वर्णिम संसार में
नए घर की तलाश में
अपनों से दूर… बहुत दूर
जाकर बस जाते
भुला देते
बचपन की स्मृतियां
संगी–साथियों का मान–मनुहार
रिश्ते–नातों और संबंधों को
दरकिनार कर
मां के प्यार–दुलार
स्नेह व त्याग की स्मृतियां भूले से भी
उनके ज़हन में दस्तक नहीं देतीं
और न ही वे कभी लौट कर आते
जहां उन्होंने आंखें खोली
और जीवन–डगर पर सीखा चलना
और वह घर–आंगन हो जाता
उनके लिए अजनबी ।
डा. मुक्ता