इस इलाक़े में साल भर में लगने वाले
एक-दो मेलों में ज़रूर आते
सांझ ढ़ले हमारे यहां रूकते
तय होता था उनका आना
अपना देहातीपन वे पहचानते थे
और संकोच से भरे होते थे
चौकी पर कुर्सी पर
सिमट कर बैठते, बहुत कम बोलते
साथ आए बच्चे कौतूहल से हर चीज को देखते छत पर चढ़ते-उतरते
सीढ़ियों पर फिसलते
रात को छत पर या कहीं भी
गुड़ीमुड़ी होकर सो जाते थे एक चादर में
और मुंह अंधेरे बिना चाय-पानी
माँ का पाँव छूते यह कहते हुए निकल जाते
कि फिर आएंगे
वे अपने पांवों पर भरोसा करने वाले लोग थे
दो-चार कोस रोज़ पैदल आदतन चलने वाले
सूरज के पहाड़ के ऊपर उठने तक
वे बहुत दूर निकल जाते थे
उन्हें खेतों में जाना होता था
वे किसान थे
छोटे-मोटे धंधे में लगे लोग थे
अपने गाय बैलों की ख़ातिर ज़ल्दी घर लौटते
जहाँ भी होते, जिस गांव जाते
अब नहीं आते दूर-दराज़ के ये सगे-संबंधी
मेले के बाद
बरसों पहले की उनकी आने-जाने की
स्मृतियां भर बची हैं अब
मेले आज भी हैं
पहले से ज़्यादा भीड़ लिए
ज़्यादा चमकीले और नये शोर से भरे हुए
और क्या पता वे आते भी हों
और हमसे बिना मिले ही लौट जाते हों
वे आएंगे ही, इस भरोसे से
रसोई में अब अलग से कोई जतन नहीं होता
पीतल की बड़ी हांड़ी में भात बने कई बरस हुए
पांत में इन संबंधियों के साथ बैठकर
अपने ही आंगन में खाए बहुत साल बीते हैं
विनय सौरभ
नोनीहाट, झारखंड, भारत