ऋतु है मधुर-मधुर
सपनों की
मेरी आँखों में बस जाओ ।
अमराई फिर बौराई है
गूंज उठी
भौंरे की गुनगुन
कोयल ने भी अंगड़ाई ली
बहक उठी पायल
की रुनझुन
बहुत हो चुके गीत दर्द के
अब वासन्ती
राग सुनाओ ।
रंगोली से सजे हुए दिन
रातें भी
महकी महकी हैं
नीले नभ से
होड़ लगाती अलसी
लहर लहर
लहकी है
पर मेरा आँगन
सूना है
तुम कुछ पल को आ जाओ ।
महक रही
केसरकी कलियाँ
मोहक मादक
गन्ध बिखेरें
आशाओं के
आसमान को
सजा रही हैं स्वर्णिम
किरणें
अंधियारे मन के
मिट जायें
यदि तुम आकर
दीप जलाओ ।
डॉ मधु प्रधान, कानपुर