कविता

मिलने आना और लजाना
और फिर चुप–चुप रहना
कभी एकटक तकते रहना
और फिर नजरों का झुकाना
होंठ सिले, शरमाई नजरें
बहकी सी साँसो की सरगम
निःशब्द हुआ है मन का आँगन
समझाओ ना !
ऐसा क्यों है ?
सरक गया जब सिर से पल्लु
नटखट झोंका मस्त पवन का
खेल रहा बिखरी अलकों से
मेरा मन भी उलझ गया है
तेरी उन अल्हड काकुल में
युग–युग से मन की अभिलाषा
इस इक पल को जी लेने को
सुलझाओ ना !
उसा क्यों है ?
तिरछी नजरें, झुकी–झुकी सी
पल में कितनी ऋचा गढ गयी
बाँच रहा हूँ दिल की पाती
पलकों से छलकी रसधारा
केवल एक अंजुरी भर ही
मन करता है पी जाने को
बतलाओ ना !
ऐसा क्यों है ?
नजरों–से–नजरों की बातें
बेबस दिल जाने तो कैसे
प्रवात सुगन्धित कर जाते हैं
मधुर गीत, संगीत निराले
डुब रहा है तन–मन मेरा
सागर से गहरे नयनों में
ये प्रीत सनी उलझन है कैसी
समझाओ ना !
ऐसा क्यों है ?
साभार: अनेक पल और मैं
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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)