वह है
पिंजरा है
पंख भी है
जो फडफडाते भी है
पर उसने आजमाया नहीं है
खुद को आसमान में
उडान के लिए बहुत लम्बे समय से
शायद !
भूल गया है वह
स्वछन्द नभ में
विचरण की रूचि को
भुला बैठा है उडने के
कौशल को भी
एक अनजाने भय से
बन गया है उसका एक नया संसार
नभ से इतर
उस पिंजरे में ही
कैद हो गयी हैं सम्भावनाएँ
जाने कब से
केैद है या आजाद
और क्या होता है
आजादी का स्वाद
अलग
पिंजरे की पहचान से
खुला है दरवाजा
पिंजरे का या बन्द है
क्या फर्क पडता है अब
क्योंकि
उसे भा गया है पिंजरा
या
पंखो ने खो दी है
उडान भरने की
कला या
रास आ गयी हैं
पिंजरे की बन्दिशें
या
स्वीकार कर लिया है
उसने झूठी आसक्ति को ।
साभार: अनेक पल और मैं
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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)