रूक–रूक के चल,
सँभल–सँभलकर चल
भले बहक कर चल
मचल कर भी चल
किन्तु
चलती रहना
बिना थके,
बिना रूके, चल ! चल !!
क्या गजब का मुकाम आया है
जो मजबूर कर रहा है
फिर भी चलने को
अपने परायों को परखने को ।
साथ कौन है आज ?
कदम से कदम मिलाकर
अगली मंजिल को पाने के लिए
कहे चल ! चल !!
थोडी देर ठहर जा उसे पीडा ना हो
तेरी नोक के नीचे पृष्ठ को
जिस पर अंकित मेरे अपनों के नाम
नहीं ! नहीं !!
पर रूक मत चल !
जानता हूँ, तू नहीं है
किसी मानव मात्र के बस में
किसी काल खण्ड के,
किसी राजनीति के
तू निर्बाध रूप से चलती रही है
लिखती रही है काल के कपाल पर
सामाजिक, राजनीतिक और
सामयिक विवेचना
वाह ! वाह !!
निर्भीक कलम
तू चल ! चल ! चल !!
साभार: अनेक पल और मैं
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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)