• २०८१ कातिर्क २५ आइतबार

ओ प्रिय

बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

ओ प्रिय !
ओ प्रिय ! क्यों ऐसे मौन हो तुम
कुछ तो बताओ, कौन हो तुम ?
चाँद की किरण हो, रूप की फबन हो
या प्रीत का दीया हो तुम
आखिर क्या हो तुम ?

सात सुरों की सरगम हो या नगमों की झनकार हो
मेरी किसी कविता की, बिखरी- संवरी
पंक्तियों का सुंदर आकार हो
हुस्न की दिलकश अदा हो
या मेरी प्रेरणा हो तुम
आखिर क्या हो तुम ?

यौवन की अंगडाई हो या चाहत का गुलजार हो
शोला हो, शबनम हो, महकती बसंत बहार हो
सावन की मस्त घटा हो या मदभरी हवा हो तुम
आखिर क्या हो तुम ?

मदहोशी का सपना हो या जन्नत से उतरी हूर हो
दर्द हो, या दर्द की दवा हो तुम
आखिर क्या हो तुम ?

जो भी हो, जैसी भी हो
कुबूल करता हूँ,
यकीन करो जान- ए- वफा हो तुम
मेरे इश्क का सफीना,
जिसे ढूँढता था वही नाखुदा हो तुम !

साभार: चाहतों के साये में


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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)