• २०८० असोज ७ आइतबार

संध्या–अस्ताचल

बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

संध्या में मैं जिंदगी को आईना
देखते हुए देखता हूँ
और यन्त्रवत् दुःखी मन से प्रेम समझकर
कविता लिखता हूँ ।

देखने पर कुछ बदला हुआ नजर नहीं आता
छुने पर न छुने जैसा भी नहीं लगता
लेकिन निश्चय ही कहीं कुछ हुआ जरूर होता है
हाँ, यह अलग बात है कि बाहर से कुछ नजर नहीं आता
छूने की कोशिश करने पर भी पकड में वो नहीं आता ।

में तुम्हें छू नहीं सकता
जैसे चाँद को हाथ बढाकर छुआ नहीं जा सकता ।
तुम में और चाँद में फिर भी एक अन्तर है
चाँद कभी-कभी मेरी खिडकी के पास चला आता है
मगर तुम नहीं आतीं ।

वैसे तो चाँद और सूरज भी छुपते नहीं, झुकते नहीं
मगर मैं तुम्हारे प्रेम के सामने
ऐसे झुकता हूँ
जैसे फलों से लदी टहनियाँ भी झुकतीं नहीं ।

मेरे सामने विवशता के उदास तालाब है
पानी मिलने की उम्मीद नहीं है
इसलिए मैं तालाब की उसी उदासी को पीता हूँ ।
विराग के भीतर अनुराग को जीता हूँ ।

साभार: चाहतों के साये में (कवितासङ्ग्रह)


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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)