• २०८० असोज ९ मङ्गलबार

माँ

बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

माँ !
जिन्दगी की भाग दौड में
किस मुकाम पर आ गया हूँ मैं
जहाँ नहीं है कहीं भी मेरे आसपास
तुम्हारी कोमल आवाज
नहीं सुन पा रहा तेरी लोरी की
मधुर स्वर-लहरी

माँ !
आजकल हो गया हूँ मैं आत्मकेन्द्रित
इसीलिए तो अब कभी सपने में भी,
नहीं देखा पाता ममता की छाँव
नहीं पी पाता
तेरे जीवन रस की बहती अमृतधार

माँ !
भुजाएँ होने लगी हैं अब शिथिल
इसीलिए भर नहीं पाता
बाँहों में तेरा अहसास

माँ !
मेरे पैर भी अब थकने लगे हैं
नहीं दौड पाता तत्परता से
इसीलिए यह पहुँचा नहीं पाते
मुझे तेरी छत्र- छाया तक

माँ !
थकना नहीं चाहता हूँ मैं
आज भी सतत जूझ रहा हूँ
जीवन चक्र से
किन्तु हर क्षण बस सोचता हूँ
पा सकूँ कुछ पल सुकून के
तेरे आँचल की छाया में
भूल जाऊँ जीवन के हर
तप्त तीखे अनुभवों को
माँ बस तेरा आँचल चाहता हूँ।

साभार: अनेक पल और मैं


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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)