• २०८१ फागुन १ बिहीबार

‘देह का जल, जैसे शुरू होता है भरना, मन वैसे हीनाव बन जाता है’

डा. श्वेता दीप्ति

डा. श्वेता दीप्ति

‘देह का जल, जैसे शुरू होता है भरना, मन वैसे ही नाव बन जाता है
हे नाविक ! मुझे पार उतार दो निर्विघ्न ओ खेवैया !’

अक्कमहादेवी
अक्कमहादेवी का जन्म 12वी सदी में कर्नाटक के उउडुतरी नामक गाँव (जिला शिवमोगा) में हुआ था । इतिहास में वीरशैव आंदोलन से जुड़े कवियों, रचनाकारों की एक लंबी सूची है । अक्कमहादेवी इस आंदोलन से जुड़ी एक महत्वपूर्ण कवयित्री थी । चन्नमल्लिकार्जुन देव (शिव) इनके आराध्य थे । कवि वसवन्नाइनके गुरु थे । कन्नड़ भाषा में अक्क शब्द का अर्थ बहिन होता है ।

अगर चिनगारी उड़ी
तो समझूँगी
मिट गयी है मेरी भूख- प्यास
अगर फट पड़ा आसमान
तो समझूँगी
मेरे नहाने के लिये तिर आया वह
अगर फिसल पड़ी पहाड़ी मुझ पर
तो समझूँगी
मेरे बालों के लिए फूल है वह
जिस दिन गिरेगा मेरा सिर
मेरे कन्धों से कटकर

समझूँगी
तुम्हें अर्पित हुआ
मल्लिका शुभ्र स्वामी !

वर्णित है कि अक्कमहादेवी अपूर्व सुंदरी थीं । एक बार वहाँ का स्थानीय राजा इनका अद्भुत अलौकिक सौंदर्य देखकर मुग्ध हो गया तथा इनसे विवाह हेतु इनके परिवार पर दबाव डाला । अक्कमहादेवी ने विवाह के लिए राजा के सामने शर्त रखी कि राजा कभी उनकी पूजा- अर्चना में अड़चन नहीं डालेगा, उन्हें अपने गुरुजनों, सत्संगियों से मिलने देगा आदि । राजा मान गया था और विवाह सम्पन्न हो गया ।

महादेवी भक्तिन थीं किन्तु युवती थीं, सुंदर थीं । स्वाभाविक है कि कठिनाइयाँ तो आनी तय थीं । किन्तु उनके भीतर का संतत्व ऐसे विकट रास्ते बाहर आएगा, यह अकल्पनीय है । एक- दो वर्ष में ही धीरे- धीरे सब शर्तें टूटने लगीं । और महादेवी को घर छोड़ना पड़ा । किन्तु घर छोड़ने की घटना भी बड़ी ह्रदयविदारक है ।

कहते हैं कि रोज की तरह उस दिन भी महादेवी पूजा में बैठी थीं, सद्यस्नाता, जब राजा, उनका पति, उन्हें देख ऐसा कामातुर हुआ कि उसमें पूजा समाप्त होने तक का धैर्य न रहा । उसने आकर महादेवी का वस्त्र खींच दिया और वस्त्र खुल गया, महादेवी का ध्यान भंग हो गया । महादेवी ने उघड़े शरीर की ओर संकेत कर उसे धिक्कारा, क्या इस देह के लिए तुमने मुझे ऐसा व्यथित किया है ? पति ने कहा, तुम अब मेरी संपत्ति हो, तुम्हारे वस्त्र और आभूषण भी, अब मैं जो चाहूँ, तब कर सकता हूँ ।

और फिर महादेवी जैसी खड़ी थीं, वैसी बाहर निकल आईं, निर्वसन । किंकर्तव्यविमूढ़ । महल से सड़क पर, सड़क से देश में । सबसे चौंकाने और तिलमिला देने वाला तथ्य यह है कि अक्क ने सिर्फ राजमहल नहीं छोड़ा था, वहाँ से निकलते समय पुरुष वर्चस्व के विरुद्ध अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति के रूप में अपने वस्त्रों को भी उतार फेका था । वस्त्रों को उतार फेंकना केवल वस्त्रों का त्याग नहीं बल्कि यह प्रतीक था उन नियमों के विरुद्ध जो सिर्फ एकांगी मर्यादाओं और केवल स्त्रियों के लिए बना था उनका तीखा विरोध था समाज के प्रति । जहाँ उन्होंने यह बताना चाहा कि स्त्री केवल शरीर नहीं है । इसी गहरे बोध के साथ महावीर जैन आदि महापुरुषों के समक्ष खड़े होने का उनका प्रयास था । इस दृष्टि से देखें तो मीरा की पंक्ति तनकी आस कब हुँ नहीं की नी ज्यों रणमाँ ही सूरो अक्क पर पूर्णतःचरितार्थ होती है ।

अक्क के कारण शैव आंदोलन से बड़ी संख्या में स्त्रियों (जिनमें अधिकांश निचले तबकों से थीं) जुड़ी और अपने संघर्ष और यातना को कविता के रूप में अभिव्यक्ति दी । स्वयं अक्क भी निचले तबके से ही आई थीं । इस प्रकार अक्कमहादेवीकी कविता पूरे भारतीय साहित्य में इस क्रांतिकारी चेतना का पहला सर्जनात्मक दस्तावेज है और सम्पूर्ण स्त्रीवादी आंदोलन के लिए एक अजस्त्र प्रेरणा स्त्रोत भी ।

घर से निर्वसन निकलने के पश्चात् उन्होंने जीवन भर, भले वह उनका छोटा सा जीवन था, कोई आवरण नहीं लिया । बस उनके लंबे केशों ने उन्हें ढँका, उनकी नग्न, युवा, स्त्री- देह को, जितना संभव था । उसी निरावरण देह ने शिव- तत्वकी खोज- यात्रा आरंभ की । उन्होंने शिवप्राप्ति के लिए स्वयं का वध कर दिया । शिवप्राप्तिकी चाह और राह में महादेवी ने अल्लामाप्रभु के अनुभव- मंडप के बारे में सुन रखा था । जहाँ वो रहती थीं वहाँ से आठ सौ किलोमीटर दूर वह स्थान था । महीनों पैदल चल कर, भिक्षा मांगतीं, फब्तियाँ सुनतीं, तिरस्कार सहतीं, वह वहाँ पहुंचीं, आज के बीदर कल्याण स्थान में, शिवकी महिमा सुनने । मगर कहते हैं कि शिवत्व की प्राप्ति संभवतः उन्हें बीच रास्ते ही कभी हो गई थी । उनकी आंतरिक शारीरिक रचना बदल गई थी, मासिक धर्म रुक गया था । काया- छिद्रों में से राखकी विभूति निकलनी शुरू हो गई थी । रहस्यवादी इसे शिव से मिलनकी उच्च अवस्था का संकेत मानते थे ।

महादेवी के वचनों में इस विकट यात्राकी अनेक छवियाँ मिलती हैं । जब वह अनुभव मंडप के करीब पहुंचीं, हड़कंप मच गया । भभूत से ढँकी एक नग्न स्त्री चली आ रही थी । उनका रास्ता रोकने की कोशिश हुई । अनुभव- मंडप के एक भक्त बोमैया ने उन्हें रोक कर उनकी शारीरिक जांच की । और जो देखा वह आश्चर्य से भरा सत्य था । शारीरिक जाँच बाकायदा उनकी योनि तक किया गया जहाँ सिर्फ भभूत मिला । ये सब दिलदहला देने वाला वृतांत दो सौ सालबाद चौदहवीं शताब्दी में लिखे गये ग्रंथ शून्य संपादने में अंकित है ।
इसके बाद उन्हें अनुमति मिली, अनुभव मंडप में अल्लामाप्रभु के समक्ष उपस्थित होने की । वहाँ भी अल्लामाप्रभु ने कठोर प्रश्नों से उनकी कड़ी परीक्षा ली । अंत में पूछा, जब तुमने आवरण छोड़ ही दिया है तो केशों से क्यों ढंके हुए हो ? महादेवी ने उत्तर दिया, मैं तैयार हूँ प्रभु, मगर आप अभी उस दृश्य के लिए परिपक्व नहीं । सारी सभा उनके आगे नतमस्तक हो गई, बासवन्ना ने उन्हें नाम दिया, अक्का । दीदी । उसके बाद से ही वह अक्कामहादेवी कहलाईं ।

मगर महादेवी वहाँ नहीं रुकीं क्यों कि उनका मार्ग ज्ञान- चर्चा का न था । कुछ समय अनुभव मंडप में बिताने के बाद वह शैल पर्वत की ओर चली गईं, श्रीशैलम ज्योतिर्लिंग के पास, महादेव के स्थान पर । वहाँ कृष्णा नदी के किनारे आज उनकी गुफा मिलती है । यहीं उन्होंने एकांत ध्यान किया था ।
कहते हैं, अंतिम वर्षों में उनके माता- पिता वहाँ आए थे, उन्हें लिवाने । वह नहीं गईं । फिर उनका राजा पति, उनसे क्षमा मांगने आया । मगर तब तक वह तपस्या में बहुत आगे जा चुकी थीं । लौटने को कुछ था नहीं । सन् 1160 के आसपास, अट्ठाईस- तीस की वय में, किसी समय वह अन्तर्धान हुईं । कुछ कहते हैं, श्रीशैलम में समा गईं ।

उनके आगमन का पथ
निहारती हूँ
य दिन हीं आये वे
मुरझाती हूँ मैं
क्षीण हुई जाती हूँ
अगर विलंब हुआ उन्हें
छीजती है मेरी काया
माँ !
रात भर के लिये भी अगर
दूर होते हैं  वे
मैं  प्रेम में डूबी
उस चकोर की तरह हूँ
रिक्त है जिसका
आलिंगन ।
(आधार:  तेजस्विनी अक्का महादेवी, गगन गिल)


(डा. श्वेता दीप्ति त्रिभुवन विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य की उप-प्राध्यापक हैँ)
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