• २०८१ माघ १ मङ्गलबार

झरना

जयशंकरप्रसाद

जयशंकरप्रसाद

मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी
न हैं उत्पात, छटा हैं छहरी
मनोहर झरना ।

कठिन गिरि कहाँ विदारित करना
बात कुछ छिपी हुई हैं गहरी
मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी

कल्पना तीत काल की घटना
हृदयको लगी अचानक रटना
देख कर झरना ।

प्रथम वर्षा से इसका भरना
स्मरण हो रहा शैलका कटना
कल्पना तीत काल की घटना

कर गई प्लावित तनमन सारा
एक दिन तब अपांगकी धारा
हृदय से झरना-

बह चला, जैसेदृगजल ढरना ।
प्रणयवन्या ने किया पसारा
कर गई प्लावित तन मन सारा

प्रेम की पवित्र पर छाई में
लाल साह रित विट पझाँई में
बह चला झरना ।

तापमय जीवन शीतल करना
सत्य यह तेरी सुघराई में
प्रेम की पवित्र परछाई में ॥


जयशंकरप्रसाद