• २०८० मंसिर १९ मङ्गलबार

शीतल चाँदनी

बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

हे! शरद की शीतल चाँदनी,
तुम्हारी शीतलता भी
पौष की गुनगुनी धूप- सी लगती है
कभी सघन वृक्षों की छाँव
तो कभी सरवर में उठी
नटखट लहर- सी लगती है
लगता है
तुम ललित कलाओं में
निपुण हो सुहासिनी
हे मृदुभाषिणी !
तेरी रसयुक्त, मधुर
वाणी से परे
तेरे नयन
तीक्ष्ण बाणों
की नुकीली धार सी हैं ।

मेरे मन मन्दिर में
जब से हुआ है तुम्हारा आगमन
बस तुम्हारी ही सुगन्ध बसी है
मेरी श्वासों में,
और झंकृत कर रही है
मेरे रोम- रोम को
रोमांचित हो रहा है
भीगता अन्तर्मन मेरा
हाँ ! चमत्कृत भी ।

साभार: अनेक पल और मैं(कविता संग्रह)


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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)


बन्धन

उलझे सवाल