स्याह रातें
जब अपने आँचल में
सुलाना चाहती हैं
प्रेम के गीत
गुनगुनाकर
अपने स्वांस में
प्रेम भरकर
बाँटते हुए प्रेम
मुझे भी,
जीवन के दर्द
आँचलकी ठंडी हवा में
गुम हो जाते हैं
पीडा घट जाती है
थमजाते हैं
निरर्थक व्यतिक्रम
के
बेचैन क्रम,
उद्विग्नता
विरामपाती है
हृदय स्थभाव
मूत्र्त रूप में
गढजाते हैं
चित्रितहो जाते हैं,
मानसिक तूलिका
अपने वैभव को
चित्रित कर पाती है
आँचल और अनिल
दोनों स्याह रातों में
खो जाते हैं
नेहकी ऊंचाइयों में
स्नेह के रथ पर सवार
दर्द को दर्द के
साथ छोडकर ।
अनिलकुमार मिश्र, राँची, झारखंड, भारत
[email protected]