• २०८२ कार्तिक १८, मंगलवार

दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई

गुलजार

गुलजार

दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई
आईना देखके तसल्ली हुई
हमको इस घर में जानता है कोई

पक गया है शजरपे फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई
फिर नजर में लहूके छींटे हैं
तुमको शायद मुघालता है कोई
देर से गूँजतें हैं सन्नाटे
जैसे हमको पुकारता है कोई ।


गुलजार