• २०८१ माघ ५ शनिवार

वो जिस्म ही था जो भटका किया ज़माने में, हृदय तो मेरा हमेशा तेरी डगर में रहा

डा श्वेता दीप्ति

डा श्वेता दीप्ति

प्रेम गगन के ध्रुव तारे गोपाल दास नीरज की कविताओं और ग़ज़लों में प्रेम दर्द बन कर इस कदर समाया हुआ है कि आप उसे उन के हर शब्दों में बरबस महसूस कर सकते हो |

एक रोज़ एक गेह चांद जब नया उगा
नौबतें बजीं, हुई छटी, डठौन, रतजगा
कुण्डली बनी कि जब मुहूर्त पुण्यमय लगा
इसलिए कि दे सके न मृत्यु जन्म को दग़ा
एक दिन न पर हुआ उड़ गया पला सुआ
कुछ न कर सके शकुन, न काम आ सकी दुआ
और हम डरे-डरे नीर नैन में भरे
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे
चाह थी न किन्तु बार-बार देखते रहे
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे…

4 अप्रैल, 1925 में गोपाल दास नीरज का जन्म उत्तर प्रदेश के इटावा में हुआ. उनका पूरा बचपन संघर्षों से गुजरा. गोपाल दास नीरज चार भाइयों में दूसरे नंबर के थे. उनकी आयु 6 वर्ष की थी, जब उनके पिता का निधन हो गया. उनके बड़े भाई उस वक्त 9 साल के थे और उन्होंने परिवार की जिम्मेदारी उठाई. वहीं, गोपाल दास नीरज को बुआ के घर भेज दिया, ताकि वे तालीम ले सकें. 1942 में उन्होंने हाईयर स्टीज फर्स्ट क्लास में पास की. पढ़ाई करने के बाद वे वापस इटावा अपने घर आ गए, जहां पर उन्होंने छोटी मोटी नौकरी करना शुरू कर दिया, ताकि घर की हालत में थोड़ा सुधार ला सकें. कभी बीड़ी सिगरेट बेची, तो कभी ट्यूशन दिए. जैसे भी कमाने का जरिया मिला, नीरज ने वो अपनाया. भाइयों की पढ़ाई के लिए नीरज जी ने अपनी आगे की तालीम नहीं ली. इसके बाद 1942 में दिल्ली में उन्हें एक नौकरी मिली और वे वहीं रहने लगे.

गोपाल दास नीरज ने कभी अपनी काव्य रचनाओं से समझौता नहीं किया. जो उन्होंने देखा उसको उन्होंने अपनी कविताओं से बयां कर डाला. एक बार तो ये तक हुआ कि उन्होंने एक सरकारी कार्यक्रम में सरकारी पैसों से सरकार के खिलाफ ही कविता सुना दी थी. ये वाकया खुद गोपाल दास नीरज ने अपने एक इंटरव्यू में किया था. गोपाल दास नीरज ने कहा था- जब मैंने गंगा का गीत लिखा, तो एक कवि सम्मेलन में एक साहब ने बुलाया मुझे. उन्होंने मुझसे पूछा कि साहबजादे क्या करते हैं आप ? मैंने कहा कि साहब में तो सप्लाई डिपार्टमेंट में टाइपिस्ट हूं. उन्होंने पूछा कितना मिलता है आपको मैंने कहा- 67 रुपये मिलते हैं. उन्होंने तब मुझसे कहा कि आप मेरे ऑफिस आइये, मैं आपको हिंदी साहित्य में काम दिला दूंगा. इसके लिए आपको 120 रुपये महीना मिलेगा  120 रुपये उस समय बहुत बड़ी बात थी.

दिग्गज कवि ने अपनी बात को आगे जारी रखते हुए कहा था- जब मैंने जॉइन कर लिया तो मैंने पूछा कि क्या काम है मेरा? तो मुझसे कहा गया कि कवि सम्मेलन के जरिए सरकार की योजनाओं का प्रचार करना है. ये सुनकर तो मेरा मन बहुत निराश हुआ, कि ये क्या काम है. मेरा मन विद्रोह कर रहा था कि मैं सरकार के लिए काम कर रहा हूं. 1944 में एक कवि सम्मेलन देहरादून में हुआ. 1943 में मैं कलकत्ता गया था, वहां उस समय अकाल पड़ रहा था. उस वक्त मैंने आदमियों को झूठन के लिए लड़ते देखा था. इससे मन बहुत दुखी हुआ और मैंने एक कविता लिखी- मैं विद्रोही हूं जग में विद्रोह करने आया हूं, बहुत कुछ बदल गया है, चाहे शोर समय का या जोर हवाओं का…

नीरज जी आगे बोले- ये कविता अक्सर मैं कवि सम्मेलनों में पढ़ता था. जब देहरादून में कवि सम्मेलन मैंने खत्म किया तो मैंने ये कविता पढ़ दी. तब वहां एक डिप्टी कलेक्टर थे, वो मुझे पहले सुन चुके थे और बहुत प्यार करते थे. उन्होंने मुझे बुलाया और कहा कि नीरज अब तुम दिल्ली मत जाना. मैंने उनसे पूछा कि क्यूं साहब? तो वे बोले तुमने जो कविता पढ़ी है, सरकार के पैसे से सरकार के खिलाफ आप प्रचार कर रहे हो. आपको वहां गिरफ्तार कर लिया जाएगा (उस समय देश में अंग्रेजी हुकूमत का राज था). इसके बाद मैं तुरंत कानपुर भाग गया.

नीरज ने एक बार किसी इंटरव्यू में कहा था,‘‘अगर दुनिया से रुखसती के वक्त आपके गीत और कविताएं लोगों की जबान और दिल में हों तो यही आपकी सबसे बड़ी पहचान होगी, इसकी ख्वाहिश हर फनकार को होती है।

‘नीरज’ प्रेम-सौदर्य के ही कवि थे, यह सच नहीं। वे मंचों से अध्यात्म के जरिए दो नस्लों को जीवन का फलसफा समझाने वाले साधक संत भी थे। जैसी लोकप्रियता व प्यार नीरज को मिला, वैसा शायद ही किसी को नसीब होता है।

तुम्हारे घर का सफ़र इस क़दर सख्त न था…
दूर से दूर तलक एक भी दरख्त न था
तुम्हारे घर का सफ़र इस क़दर सख्त न था ।
इतने मसरूफ़ थे हम जाने के तैयारी में,
खड़े थे तुम और तुम्हें देखने का वक्त न था ।
मैं जिस की खोज में ख़ुद खो गया था मेले में,
कहीं वो मेरा ही एहसास तो कमबख्त न था ।
जो ज़ुल्म सह के भी चुप रह गया न ख़ौल उठा,
वो और कुछ हो मगर आदमी का रक्त न था ।
उन्हीं फ़क़ीरों ने इतिहास बनाया है यहाँ,
जिन पे इतिहास को लिखने के लिए वक्त न था ।
शराब कर के पिया उस ने ज़हर जीवन भर,
हमारे शहर में ‘नीरज’ सा कोई मस्त न था ।