• २०८१ भाद्र २५ मङ्गलबार

पौष की सुबह

बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

पौष की सुबह
चाराें ओर धुन्ध,
घना कोहरा
ओस से ढकी दूब
सिहराती शीत लहर
जमता हुआ तापमान
ठण्ड की गिरफ्त में
अकडा हुआ… तन–बदन

ऐसे में अगर एक झलक
जो तुम्हारी मिल जाती
तो नस–नस में जमा रक्त
पिघल कर फिर से दौड्ने लगता
घने कोहरे में पत्तों पर पडी
ओस के कण भाप बन जाते
मचल जाता शीत का प्रीत
बढ जाती साँसों की ऊष्मा
और ठिठुरती रात में
तप्त अहसासों के बीच
सुलगने लगते मन
स्फुट से स्वर
पुकारते तुम्हें…एक बार
सिर्फ एक बार
तुम आ जाओ ना
देखो!
नशीली पौष
कैसे सुहानी हो जाती है ।

साभार: अनेक पल और मैं


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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)