• २०८१ माघ ५ शनिवार

असलियत ने खोली आँखें

आचार्य मायाराम पतंग

आचार्य मायाराम पतंग

मैं लक्ष्मी जनरल स्टोरका मालिक हूँ ।मेरे पास चार नौकर सेल्समैनके नाते काम करते हैं । एक चौकीदार है । मैंने बी. कॉम. दिल्ली विश्वविद्यालय से पास किया है । मैं किसी बड़ी फर्ममें नौकरीकी तलाशमें था । सालभर भागदौड़ करके थक गया तो पिताजीने कहा, “बेटा, क्यों परेशान होते हो, यह स्टोर भी तो तुम्हारा ही है । कलसे तुम इसकी गद्दीको सँभालो ।वैसेभी मैं अब ७० से ऊपरका हो गया हूँ । एक-दो महीने मैं भी तुम्हारे साथ बैठूँगा ।जब तुम ठीकसे सँभाल लोगे तो मैं घर ही रहा करूँगा ।” पिताजीकी बात आसानीसे समझमें आगई । मुझे अगर नौकरी मिलभी जाती तो नौकर ही तो कहलाता । अब मैं मालिक हूँ । नौकर मेरे आदेशका पालन करते हैं । बार-बार मुझे मालिक और सर कहते हैं । ग्राहक मुझे लालाजी कहते हैं ।अब तो मैं कहता हूँ, ईश्वर जो करता है, अच्छा ही करता है ।मुझे नौकरी नहीं मिली तो ठीक ही हुआ । किसीकी जी-हुजूरी करता ।सारे दिन काम करता और महीने भर वेतनका इंतजार करता । अब मैं मालिक हूँ । काम वे करते हैं ।मैं आदेश देता हूँ । महीने भरका लेखा-जोखा भी मुनीम करता है ।सब काम करने वालोंका वेतन देकरभी बहुत बचता है ।

एक पढ़ी लिखी लड़कीसे मेरे पिताजीने मेरा विवाह कर दिया । लड़की वालोंसे मेरे पिताजीने कोई दान-दहेज नहीं माँगा ।यद्यपि मैं चाहता था कि एकबार ही तो विवाह होना है, जो शानसे हो ।ससुराल से भी कुछ याद रखने योग्य मिले । परंतु पिताजीने ही मना करदिया तो मैं क्या करता ।विवाह हो गया । पत्नी सुंदर थी । सब शिकायत मिट गई ।थोड़ी खर्चीली भी थी, कोई बात नहीं । मेरी आमदनी भी कम नहीं थी ।उसके फैशनके खर्चे झेलनेमें मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई ।

दो वर्ष बाद मेरी पत्नीने एक पुत्रको जन्म दिया ।मेरे पिताजीने खुशी मनानेमें कोई कसर नहीं छोड़ी । मैंने अपने दोस्तों, रिश्तेदारों तथा पड़ोसियोंकी दावत की । ससुरालसे भी सब आए । खूब नाच-गाना हुआ ।बेटेका नाम सुरेश रखा गया । रमेशका बेटा सुरेश नाम जँचता है ।सुरेशको सभी प्यार करते थे । मेरे पिताजी तो दिन-रात उसे खिलानेमें लगे रहते थे ।अब तो स्टोर पर जानेका नाम भी नहीं लेते थे ।मेरी पत्नीसे भी अधिक सुरेशकी पालना पिताजी ही करते थे । उसे दूध पिलाना, फल, मीठा खिलाना, उँगली पकड़कर चलना, लोरी सुनाकर सुलाना, सबकुछ पिताजी करते ।

मुझे याद नहीं, मेरी माँ कब रामजीको प्यारी हुई थीं । उनका नाम था लक्ष्मी ।लक्ष्मी जनरल स्टोर दुकानका नाम उन्हींके नाम पर था ।उनकी एक फोटो फ्रेममें मढ़ी हुई कमरेकी दीवार पर टँगी थी । पिताजी कभी-कभी उस तसवीरके सामने खड़े होकर मौन देखते रहते । कभी-कभी मैं भी माँ की तसवीरको श्रद्धापूर्वक देखता ।

एकदिन मेरी पत्नी बोली, “क्यों जी, अब तो स्टोरके मालिक आप हैं ।जब मालिक पिताजीथे तो स्टोरका नाम लक्ष्मी स्टोर था । उन्होंने अपनी पत्नीके नाम पर यह नाम रखाथा । अब आप मालिक हैं तो दुकानका नाम मीना रखलो ।” मुझे बड़ाआश्चर्य हुआ । मैं बोला, “ये नाम यों ही नहीं रखे जाते ।कई शुभ-अशुभ विचार किए जाते हैं । फिर लक्ष्मी मेरी भी तो माँ थी ।मैं उनका नाम क्यों बदलूँ ?” मीना बोली, “मैं तुम्हारी कुछ नहीं लगती क्या ?मीना नाम भी कोई बुरा तो नहीं है ।” मैं बोला, “बाजारमें ऐसी दुकानें हैं, जिनके नाम उनके दादाके नाम पर हैं । उसी नामसे फर्म चलरही है ।मालिक तीसरी पीढ़ीमें आगए, परंतु दुकान उसी नामसे चलरही है ।कईबार नाम बदलनेसे काम बढ़नेकी जगह ठपभी हो जाता है ।” मीना नहीं मानी, बोली, “एकबार पिताजीसे बात करके देखो, शायद उन्हें कोई एतराज ही नहो ।” परंतु सचबात यह है कि मेरी हिम्मत ही नहीं हुई । हो सकता है, वह मान ही जाते, परंतु मैं चलते नाम और चलते काममें बाधा डालना नहीं चाहता था ।

अब तो मीना पिताजी पर रोज कोई-न-कोई आरोप लगाने लगी । कभी कहती, पता नहीं कहाँ चले गए ? घरमें इतने काम हैं । कम-से-कम बाजारके काम तो करही सकते हैं । एकदिन जब रातका खाना खाने बैठे तो सब्जी ही नहीं थी । केवल दाल थी । मैं रातको दाल-चावल नहीं खाता । रातको तो कोई बढ़िया सब्जी होनी ही चाहिए । मीनाने बिना मेरे पूछे ही कहा, “पिताजीने सब्जी लाकर ही नहीं दी । सब्जी लानेको जो रुपए लेगएथे, उससे किसी बच्चेकी सहायता कर आए । उन्हें अपना घरतो दिखता नहीं है ।सहायता करने वाले महान्संत बन जाते हैं ।अभी अगले महीने सुरेशका जन्मदिन आ रहा है । बच्चा पाँचवें वर्षमें लगेगा ।जन्मदिन अच्छेसे मनाना पड़ेगा । फिर वह स्कूल जाने लगेगा । फीस और ड्रेसका खर्च बढ़ेगा ।पिताजी दान-पुण्य करनेमें लगे हैं ।” मीना बहुत देरतक जाने क्या-क्या कहती रही, मुझे याद नहीं । परंतु अपना घर नदेखकर दान-पुण्य करनेकी बात मुझेभी ठीक नहीं लगी । मैंनेभी पिताजीसे कहा, “बुढ़ापे में दान करनेकी भावना जगरही है । सारे दिन खाली पड़े रहते हो ।कुछ देरको दुकान पर ही आ जाया करो, ताकि मुझेभी आराम मिल जाए ।सुबहका गया अब रातको घर आया हूँ । ठीकसे स्वादिष्ट खानाभी नमिलेतो कितना मन दुःखी होता है ।

एकदिनकी बात है, रातको जब मैं खाने बैठा तो मीना पिताजीकी अच्छाइयोंको बुराईके नमक-मिर्च लगाकर सुनाती रहती ।मुझे सुननेसे ज्यादा वह जोरसे बोलकर पिताजीको सुना रही होती ।एकदिन पिताजीने एक थैलेमें माताजीकी तसवीर रखी और बोले, “बेटा, मैं आप लोगोंको कोई सुख नहीं दे पाया । रोज-रोज जाने-अनजाने मुझसे कोई गलती हो जाती है ।बहू तुम्हें सुनाती है । फिर तुम्हेंभी कष्ट होता है ।अतः मैं अब तुम लोगोंको और कष्ट नहीं देना चाहता । आज दुकानकी छुट्टी है । चल सको तो मुझे नोएडा सेक्टर ५५ तक छोड़ आ ओ । वहाँ एकवृद्ध आश्रम है ।अब मैं वही रहूँगा ।” मैं कहने वाला था कि घरमें जी नहीं लगता तो मंदिर चले जाया करो । दुकानपर आ बैठा करो, परंतु मेरे बोलनेसे पूर्व ही मीना बोली, “पिताजी का निर्णय ठीक ही है । सारा दिन अकेले पलंग तोड़नेसे तो यही अच्छा है ।वहाँ बराबरके साथी होंगे । इनका भी मन लगा रहेगा और दान-पुण्यके चक्करमें घरका कोई नुकसान भी नहीं करेंगे ।” पिताजी फिर बोले, “यदि तुम्हें फुरसत नहीं है तो मैं स्वयं ही बससे चला जाऊँगा ।वैसे तो बरसोंसे बसमें नहीं चढ़ा हूँ । भय लगता है । कहीं चढ़ने-उतरनेके चक्करमें गिर नजाऊँ ?”
मीना फिर बोली, “ठीक तो कह रहेहैं, आप जाकर छोड़ आओ न ।और यह थैलेमें क्या लेजा रहे हो ?” कहते-कहते मीनाने थैला स्वयं उठाकर देख लिया । सासका फोटो देखकर बोली, “अच्छा, ठीक ही किया ।इसे देखकर सुरेश पूछता, अम्माका फोटो यहाँ है तो बाबा कहाँ हैं ? अब वह नदेखेगा, नपूछेगा । जाओजी छोड़ आओ न, मैं तबतक खाना बना लूँगी ।सुरेशको भी तो स्कूलसे लेते आना ।”

मैं चुपचाप खड़ा हो गया । अपनी समझने तो काम करना ही बंदकर दिया ।पत्नीका आदेश समझकर उठा । गाड़ीकी चाबीली और बोला, “चलो, मैं गाड़ी निकालता हूँ ।” गाड़ी निकाली ही थी कि मीनाकी आवाज आई, पिताजीसे कह देना, सुरेशके जन्मदिनपर भी नआएँ ।हम जन्मदिन पर कोई पार्टी नहीं करेंगे । सुरेशको साथले जाकर वहीं मिला लाएँगे ।पिताजी गाड़ीका दरवाजा खोलकर पीछेकी सीटपर बैठ गएथे ।मैं अपनी सीटपर बैठा और गाड़ी स्टार्ट करदी । मीना देखती रही ।सेक्टर ५५ के वृद्धाश्रम पहुँचे तो पता चला, यहाँ बच्चेभी हैं । एक सुरक्षाकर्मीसे पूछा, यहाँ बच्चेभी दिखाई पड़ रहे हैं । सुरक्षाकर्मीने कहा, बाबूजी एकही भवनमें बाई ओर वृद्धाश्रम है तथा दाएँ ओरके पाँच कमरे मातृ छायाके हैं । मैंने पूछा, वहाँ माताएँ रहती हैं क्या ? सुरक्षाकर्मी बोला, नहीं, वहाँ नवजात शिशुसे ५ वर्ष तक के बच्चे पालेजाते हैं । यहींसे लोग इन्हें गोद लेजाते हैं ।सुरक्षाकर्मीसे संकेत पाकर हम कार्यालयमें पहुँच गए ।मैंने पिताजीके पंजीकरणका फॉर्म भरा और कार्यालयमें जमा करवाया । पिताजी तबतक एक सज्जनसे घुल-मिलकर बातें करने लगे । मैंने कार्यालयमें बैठे सचिवसे पूछा, यह सज्जन कौन हैं, जो मेरे पिताजीसे वार्त्तालाप कर रहे हैं ? तो उन्होंने बताया कि वे इस संस्थाके मुख्य प्रबंधक हैं । स्थापनाके समयसे ही इसकी देखरेख यही कर रहे हैं ।

फार्म जमा करके बाहर निकला तो प्रबंधक महोदय भी बाहर निकले ।मैंने उनसे पूछा, “आप मेरे पिताजीसे बड़े घुल-मिलकर बातें कर रहेथे, क्या आप उनसे पहलेभी मिले हैं ?” प्रबंधक महोदय बोले, “बेटा! मैं इन्हें ३० वर्षसे जानता हूँ । इनके कोई संतान नहीं थी ।तब ये यहीं से एक बच्चेको गोदले कर गएथे । वह तुम्हीं हो ।” प्रबंधक शायद आगे भी कुछ कहता, परंतु मैं कुछभी न सुन सका । गाड़ीमें बैठते ही स्टार्टकी और घरजा पहुँचा ।दरवाजा खोलते ही मीनाने पूछा, “छोड़ आए?” औरमैं कुछ कहनेकी जगह रोपड़ा ।मीना बोली, “क्यों, क्या हुआ? पिताजी की याद आ रहीहै क्या ?” मैं और जोरसे रोने लगा । मीना बोली, “कुछ तो बताओ, क्या हुआ?” तब मैंने कहा, “मीना, आज असलियत आई सामने । मुझेभी पिताजी अनाथालयसे लाए थे ।मुझे पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया । अपनी दुकान, मकान, धन-संपत्ति, सिर उठाकर जीने लायक बनाया ।परंतु कभी नहीं पता लगने दिया कि मैं उनका असली पुत्र नहीं हूँ ।यहाँ तक कि हमें सुखी करनेके लिए स्वयं वृद्धाश्रम चले गए और हम उन्हें सम्मान पूर्वक दो रोटी नहीं दे सके ।हमने कितना बड़ा पाप कर दिया ।” मीनाको भी असलियत जानकर सचमुच दुःख हुआ ।उसने बताया कि पिताजीकी शिकायत वह बढ़ा-चढ़ाकर करती रही है ।उन्हें सुनाकर कहती रही, फिरभी उन्होंने मुझे झूठ सिद्ध करनेका कभी प्रयत्न नहीं किया । फिर बोली, “सुरेशका स्कूलसे लानेका समय हो गया, जा ओ उसेले आ ओ ।”

मैं स्कूल पहुँचा, सुरेशको लिया । उसने पूछा, “आज बाबा क्यों नहीं आए ?” मैं चुपचाप आश्रमकी ओर मुड़ गया ।वहाँ जाकर पिताजीके पैरोंमें गिरकर क्षमा माँगी और उन्हें वापस घरले आया । घर पहुँचे तो मीनाने भी पैर पकड़ कर क्षमा-याचना की ।फिर हमने एक निश्चित राशि पिताजीको हर महीने देनी निश्चित की, जिससे वे पुण्य-दान कर सकें ।अब माताजीकी तसवीर फिर वहीं टाँग दी गई ।

साभार : भारत–दर्शन

एफ-६३, पंचशीलगार्डन,
नवीनशाहदरा, दिल्ली-११००३२, भारत