• २०८१ मंसिर १७ सोमबार

मैं ख़ुद से किस क़दर घबरा रहा

रचना पाञ्चाल

रचना पाञ्चाल

मैं ख़ुद से किस क़दर घबरा रहा हूँ ।
तुम्हारा नाम लेता जा रहा हूँ ।

गुज़रता ही नहीं वो एक लम्हा,
इधर मैं हूँ कि बीता जा रहा हूँ ।

ज़माने और कुछ दिन सब्र कर ले,
अभी तो ख़ुद से धोखे खा रहा हूँ ।

इसी दुनिया मे जी लगता था मेरा,
इसी दुनिया से अब घबरा रहा हूँ ।

बढ़ा दे लौ ज़रा तन्हाइयों की,
शबे-फुरक़त, मैं बुझता जा रहा हूँ ।

ये नादानी नहीं तो क्या है दानिश,
समझना था जिसे, समझा रहा हूँ ।


रचना पाञ्चाल
[email protected]