• २०८१ बैशाख १९ बुधबार

सड़कें

अनिल कुमार मिश्र

अनिल कुमार मिश्र

नगरों की तड़पती
छटपटाती, बेचैन सड़कें
क्या-क्या नहीं देखतीं
देखती हैं
अत्याचार, अनाचार
रात के घुप अंधेरों में
और हाँ दिन में भी
लुटते लोग,
लूटते लोग
दोनों ही इसकी
क्रोधित लाल आँखों में
चुभ जाते हैं
कभी नहीं निकलते
अनाचार, अत्याचार को देख
दहलता है दिल
इस संवेदनशील सड़क का
जिसपर से प्रतिक्षण गुजर जाते हैं
कई संवेदनहीन ‘शरीर’
कोई उफ्फ तक नहीं करता
रोती हैं सड़कें
इंसानियत का परिचय देते हुए
आक्रोशित हैं
नगरों की सड़कें
महानगरों की सड़कें
अपनी आँखों से तड़पते दर्द को
पिघलती मानवता को
‘मनुष्य’ रूपी व्यंग्य को
दोनों ही रूपों में-
तड़पते और तड़पाते
इन सड़कों ने देखा है
सड़कें चीखती रहीं
चिल्लाती रहीं
लुटते को बचाने के लिए
लूटते को सिखाने के लिए
फिर एक बार जोर से
चिल्लाना चाहती थी सड़कें
पर गाड़ियों की कतार गुजरने लगी
और दब गयी सड़कों की
संवेदनशील आवाज़
सड़कों के क्रोधित आँखों में
सूख गये आँसू
गले से घुट की आवाज़ आई
और
नगरों महानगरों की
बेचैन, छटपटाती, तड़पती सड़कें
घोंट गयी दर्द को, चीख को, आह को
फिर एक बार
और
गाड़ियाँ गुजरती रहीं, गुजरती रहीं, गुजरती रहीं ।


अनिल कुमार मिश्र, राँची, झारखंड, भारत
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