कहाँ समझ पाए हो तुम..स्त्रीको,
जो इतनी व्याख्या करते फिरते हो ।
मैं जब भी तुम्हें देखती हूँ,
तो सोचती हूँ…काश !
तुम देह के भूगोल से निकलकर,
मन के व्याकरण तक पहुँच पाते ।
काश !
तुम कमर के कोने, स्तनों के उभार,
आँखों की धार….
और भी नाजाने क्या- क्या…
से आगे भी कुछ सोच पाते ।
कभी फुर्सत में रहो,
तो उसके आँखों की गहराई में झांक,
उसके मन को पढ़ना,
जो तुम्हारे एक हिस्से के प्यार को,
चार गुना में बदल देती है,
या देना चाहती है ।
और बदले में बस इतना ही चाहती है,
कि रास्ते जब भी पथरीले हों,
तुम अपनी मजबूत हथेली आगे कर,
ठोकर लगने से पहले,
उसे संभाल लेना….!
प्रियंका सिंह, मिर्जापुर, भारत
प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेखनी के माध्यम से साहित्य सेवा में लगी हूँ और मंच पर भी सक्रियता है।
सादर धन्यवाद