• २०८१ कातिर्क २१ बुधबार

परेशाँ-हाल शहर

ध्रुव जोशी

ध्रुव जोशी

किसी जमाने में शहर के फिजाँ में
बे-खलल बहती रहती थी
स्वच्छ और शीतल हवा
आज यह हवा में जहर भरा है, मगर
सास लेने को मजबूर हम
यह हवा हमारा नसीब बन गया है
शहर वबा कि जद में है आ गया
लोग हादसे के खौफ से है डरा
कोई इससे अछूता न रहा ।

भौतिकबादी तहजीब से वाबस्ता यह वबा
बेहोश बना दिया है इन्सानी एहसास को यहाँ
इसकी शोर-शराबे में दबा हुआ है
यहाँका हर मकान
इस में रहने वाले इन्सान
हर कोई डरा हुआ है
न जाने कौन, कहाँ, कैसे इसके गिरफ्त में आजाए
फिर जिन्दगी और मौत का फासला
देखते देखते कम होने लगे ।

संक्रमण से सना हवा यहाँ
जानलेवा भाइरस से पटा है जहाँ तहाँ
क्षतविक्षत कर रखा है शहर को
लोग रवादार होते थे आफत की घडी में
आज सिर्फ अपने बारे में सोचते है यहाँ
कंक्रीट के जंगल का यह इन्सान
अब इन्सान न रहा हैवान हो गया है ।

मुहैया हुए कुदरती जरिया को इन्सान ने
बेपरवाह अपने हक में इस्तेमाल किया
कुदरत के तालमेल को बिगाड के रख दिया
लालच से किसी का पेट भरता है कब भला
साँस लेने के लिए भी यहाँ
खरीदना पड रहा है हवा
कैसे जिन्दा रह पाएगा इन्सान भला यहाँ
इन्सान ने ज्यादती कुदरत पे जो बरपा
मांग रहा है मुआवजा आज वह इसका
इन्सानी तहजीब से
कोभिड-१९ के अवतार में ।


ध्रुव जोशी
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