• २०८१ चैत ६ बिहीबार

होनहार हिमांशी

सुषमा दीक्षित शुक्ला

सुषमा दीक्षित शुक्ला

कहते हैं  होनहार बिरवान के होत चीकने पात ।
हिमांशी बहुत गरीब और अशिक्षित परिवार की बच्ची थी । विपरीत परिस्थितियों के बाबजूद उसकी पढ़ाई में गहरी लगन व निष्ठा थी, इसी वजह से सारे अध्यापकों को वह अति प्रिय थी ।
वह कक्षा पांच की छात्रा थी, परिस्थितियों ने उसे उम्र के हिसाब से अधिक परिपक्व बना दिया था ।
उसका सांवला रंग, गंभीर स्वभाव व उसके चेहरे पर पढ़ाई का तेज पूरी तरह से किसी दीपक की तरह चमक रहा था ।
वह बच्ची पढ़ाई के अलावा सांस्कृतिक कार्यक्रमों और खेलों में भी आगे रहती थी, तथा अच्छी आदतें व अनुशासन, गुरू के प्रति सम्मान की भावना उसमें कूट- कूट कर भरी थी ।
वह अपने विद्यालय की सबसे प्रखर बुद्धि और होनहार बच्ची थी ।
जब वार्षिक परीक्षा का समय आया, उसी समय उसके खेत मे गेहूं की फसल भी पक गई थी । अतः उसके पिता ने उसकी परीक्षा के दिन ही गेहूं की फसल काटना सुनिश्चित किया, क्योंकि आसमान में उमड़ते घुमड़ते काले मेघों को देखकर उस गांव के किसान नुकसान के डर से जल्द जल्द फसल काट रहे थे ।
अतः हिमांशी के पिता ने अपने सब बच्चों का आदेश दिया कि, सुबह खेत काटने चलना है, देर हुई तो बड़ा नुकसान हो सकता है ।
बिचारी हिमांशी रात भर डर से सोई नहीं, कि जैसे ही थोड़ा उजाला हो अपन हिस्से की कुछ फसल काटकर परीक्षा देने चली जाऊँ ।
वह सुबह जल्दी उठी और उसने अपनी दादी से कहा कि आज उसकी वार्षिक परीक्षा है अतः वह फसल काटने नहीं जाएगी । पर उसकी दादी तपक कर बोली कि पढ़ाई कुछ नहीं दे देगी, मेरा घर नहीं तेरी पढ़ाई से चलने वाला ।
पढ़ाई इतनी जरूरी नहीं है जितना घर के काम ।
बिचारी हिमांशी क्या करती, बिना नाश्ता किए और जल्दी से खेत पहुचकर फसल काट रही थी ।
अचानक उसे याद आया कि उसकी प्रधानाध्यापिका साढ़े सात बजे ही विद्यालय आ जाती हैं । वह काम छोड़ कर दौड़ी दौड़ी जल्दी से स्कूल पँहुची और टीचर से बोली, मैम मेरी परीक्षा पहले ले लीजिए क्योंकि आज बारिश के डर से फसल काटने जाना है । मुझे परीक्षा देनी है, मैन पूरे साल मेहनत से पढ़ाई की है ।
परन्तु मेरी दादी परीक्षा देने को मना कर रही हैं ।
इस पर उसकी प्रधान शिक्षिका ने सोचा इसके अशिक्षित घरवालों को समझाना नामुमकिन है । अतः उन्होंने सूझबूझ का परिचय देते हुए उसकी परीक्षा अलग से लेना सुनिश्चित किया और हिमांशी ने अपना प्रश्न पत्र १ घंटे में समाप्त कर टीचर को धन्यवाद देते हुए जल्दी से अपने खेत पुनः पहुंच गई और बिचारी भूखी प्यासी ही काम करती रही । विद्यालय में वार्षिक परीक्षा में सर्वश्रेष्ठ अंक पाने वाली हिमांशी अपने स्कूल की शान थी, उसकी लगन को देखकर दूसरे बच्चे भी पढ़ाई में मन लगाते थे ।
यह एक सत्य कथा है और उस होनहार बच्ची हिमांशी की प्रधानाध्यापिका मैं स्वयं हूँ ।


(लखनउ, भारत निवासी शुक्ला चर्चित कवि हैं ।)
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