• २०८१ माघ २ बुधबार

जन्म लेना कविता का

सत्या शर्मा कीर्ति

सत्या शर्मा कीर्ति

निर्विघ्न, निर्विकार
किसी उनींदी सी रात में
जब लेती है जन्म कविता
असंख्य वेदना और
गहन चिंतन के बीच
तब भी यीशु
सलीब पर टँगे देख रहे होते हैं
भविष्य के सुंदर सपने
टप–टप गिरती लहू की बूँदों में
बन रही होती है
आशा की अनगिनत ज्योति
गोलियों से छिदे सीने
में भी हँस कर
गांधी पुकारते हैं… हे राम,
देना तुम लोगों को
सकून से भरी मुक्कमल सी जिंदगी ।
कविता का जन्म लेना
किसी गर्भ पीड़ा से कभी कम न था
दंगे और रक्त के बीच भी कविता ढूँढती है अपने लिए शब्द ।
जब युगांडा की गरीबी में अँतडि़याँ
खुद ही अकड़ कर टूट रही थीं
और विश्व के किसी कोने में बर्बर सैनिकों की हवस से औरतें हो रही थीं कलंकित,
तब भी कविता उस दर्दनाक मंज़र में
खोज रही थी अपने लिए कोई शब्द।
ढूँढती रहती है कविता
अक्सर कोई ऐसा आसरा
जहाँ उसे सँवारा जाए
उसे पढ़ा जाए और गहन वेदना में
डूबे उसके शब्दों को
महसूस किया जाए।
हाँ, जन्म लेना कविता का
युगों के गुज़र जाने सा होता है
पीढ़ी दर पीढ़ी को जीने सा होता है,
कभी गर्म देगची में खदकते भात सी होती है कविता,
तो कभी टपकते महुए की खुशबू सी रकभी चूल्हे की जलती गीली लकड़ी सी होती है कविता रतो कभी गायों के खुर से उड़ती धूल सी र कभी मक्के की रोटी सरसों की साग सी होती है तो कभी ग्लेशियर से पिघलते बर्फ सी र कभी
दहकते सूर्य के गोले सी जलती है कविता र तो कभी बाढ़ में डूबते गांवों संग विलीन होती हैर कभी बसंती बयार सी कभी महकती है कविता रतो कभी किसी कूड़े के ढेर पर किसी निर्जीव संग दम तोड़ती है कविता ।
कविता
हाँ
कविता
तलाशती रहती है किसी
भावुक र अशांत और एकांत हृदय की कोख जहाँ बार–बार र अनवरत जन्म लेती रहे कविता …


(स्वतंत्र लेखन, रांची, झारखंड, भारत)
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