• २०८१ भाद्र २५ मङ्गलबार

वृद्ध दिवस पर वापसी सम्बन्धों के चूकने की दास्तान

डा. श्वेता दीप्ति

डा. श्वेता दीप्ति

आज अन्तरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस है ऐसे में आज चर्चा साहित्य में अंकित वृद्ध विमर्श की जिसमें उषा प्रियम्बदा की एक चर्चित कहानी वापसी को लेने जा रही हूँ मैं । कहानी अर्थात (slices from life) जीवन के टुकड़े, आज जीवन के एक ऐसे ही टुकड़े की चर्चा मैं करने जा रही हूँ । यह टुकड़ा कहीं दूर का नहीं है, बस हमारे ही आसपास का है, जिसे हम रोज अपने आसपास देखते हैं, महसूस करते हैं । वक्त का गुजरना और गुजरते वक्त के साथ बहुत कुछ छूटता चला जाना और उसके बाद का जो जीवन का खालीपन होता है, वही हैं हमारे बुजुर्ग, हमारे वृद्ध । उनकी सूनी आँखें, चेहरे की झुर्रियों में जीवन के कई खट्टे मीठे अनुभव, अपनों के लिए अपनी ख्वाहिशों को भूल जाने का संतोष और जीवन के अंतिम पड़ाव में उन्हीं अपनो से कुछ वक्त पा लेने की चाहत, ये जीवन्त तस्वीर हम सबके आसपास होती है । जिसे चाहे अनचाहे हम अनदेखा करते हैं और खुद को भी उसी क्षण के लिए तैयार कर रहे होते हैं ।

जीवन का यह कड़वा सच हमारे साहित्य में भी गहनता से चित्रित हुआ है । आज की कहानियाँ अपने वस्तु तत्व और अपने भाषिक विन्यास में पहले की कहानियों से अधिक समृद्ध, उन्नत और अनेकमुखी है । उसमें शहरों, गाँवों, गलियों, मुहल्लों और मध्य वर्ग के अलावा साहित्य में छूटे हुए तबकों, लोगों और उनके दुखों का चित्रण अधिक घने और प्रतिरोधी रूप में हुआ है । कदाचित ही हिन्दी कहानी में जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र छूटा हो जिसकी समस्या का चित्रण उसकी परिधि में न हुआ हो । कहानी का विस्तृत फलक और गहराई दोनों ही उसे एक प्रकार की ताजगी प्रदान करते हैं । समकालीन कहानियों में मानवीय सम्बन्धों की विवृति का कटु चित्रण भी हुआ है । बदली हुई परिस्थितियों ने सम्बन्धों के समीकरणों को भी बदला है, फलतः मानवीय सम्बन्धों में गरिमा और ऊष्मा शेष हो जाने के साथ- साथ एक मूल्यहीनता की स्थिति व्याप्त हो गई है । नौवें दशक में अनेक कहानियों में सम्बन्धों का यह सत्य बड़ी कुशलता से अभिव्यक्त हुआ है । हाँ, कुछ ऐसी भी कहानियाँ हैं जिनमें पहले की ही तरह सम्बन्धों की मधुरता, प्रगाढ़ता और ममत्व देखा जा सकता है । आज आत्मीय सम्बन्धों के खोखलेपन, रीतने और छीजने की ही स्थिति अधिक दिखाई देती है । शहरीकरण, आधुनिक शिक्षा पद्धति, जीवन के भौतिकवादी दृष्टिकोण ने मनुष्य को कितनी अमानवीय दारुण स्थिति में ला खड़ा किया है ।

अकेलेपन और वृद्धावस्था की मानसिक दशा को दर्शाती उषा प्रियम्वदा की कहानी ‘वापसी’ बूढी आँखों की दास्तान है । उषा प्रियम्वदा के कथा साहित्य में छठे और सातवें दशक के शहरी परिवारों का संवेदनपूर्ण चित्रण मिलता है । उस समय शहरी जीवन में बढ़ती उदासी, अकेलेपन, ऊब आदि का अंकन करने में उन्होंने अत्यन्त गहरे यथार्थ बोध का परिचय दिया है । उषा प्रियम्वदा बारीक और सुथरे मनोभावों की कथाकार रही हैं । उनके पात्र न कभी ऊँचा बोलते हैं, न कभी बहुत शोर मचाते हैं, फिर भी जिन्दगी और अनुभूति की उन उँगलियों को आलोकित कर जाते हैं, जहाँ से गुजरना हर किसी के लिए उद्घाटनकारी होता है । उषा प्रियम्वदा के कथा साहित्य को पढ़ना भाषा की एक समतल, शान्त और काँच सी पारदर्शी सतह पर चलना है । यह सतह अपनी स्वच्छता से हमें आश्वस्ति देती है । लेकिन यह भाषा तक ही सीमित है, भाषा के भीतर जो कहानी होती है, वह बेहद बैचेन कर देने वाली है, इनको पढ़ते हुए हम एक ऐसे पाठ से गुजरते हैं जो हमें लगातार सम्पूर्ण का आभास कराता हुआ, एक अधूरी अतृप्त जिन्दगी की कसक साथ साथ देता चलता है ।

‘वापसी’ की कहानी गजाधर बाबू की कहानी है । गजाधर बाबु एक अवकाश प्राप्त व्यक्ति हैं । रिटायर होने के बाद वे वापस अपने घर आते हैं । परन्तु, घर में उनकी कोई महत्ता नहीं रह जाती है । अब वे अपने ही घर में उस फालतू सामान की तरह हो जाते हैं, जिनका कोई महत्व नहीं रह गया है । गजाधर बाबू की पत्नी पति की अपेक्षा अपने सुख को अधिक महत्व देती है । एक रिटायर्ड व्यक्ति किस- किस तरह से मानसिक रूप से पीडि़त होता है, यही इस कहानी में रचा गया है । अवकाशप्राप्ति के पश्चात् गजाधर बाबु अपने परिवार के साथ उन लम्हों को जीना चाहते हैं जिसे उन्होंने नौकरी की वजह से गँवाया था । सरकारी नौकरी की वजह से गजाधर बाबू हमेशा बाहर रहे । पत्नी बच्चों को लेकर घर पर रही ताकि बच्चों का भविष्य बन सके । नौकरी के दरमियान ही गजाधर बाबु ने घर बनाया, बच्चों की शादी की, उन्हें पढ़ाया लिखाया किन्तु परिवार का सुख भोग नहीं पाए । इस सुख को जीने की कल्पना में लीन जब गजाधर बाबु घर पहुँचते हैं तो उनका भ्रम टूटता है ।

जिस दिन का उन्होंने बैचेनी से इंतजार किया था, जिस सुख की कल्पना की थी, कुछ भी तो नहीं था ऐसा- जो उन्हें मिला वह उनकी कल्पना से बिल्कुल विपरीत था “गजाधर बाबू बैठ कर चाय और नाश्ते का इन्तजार करते रहे । उन्हें अचानक ही गनेशी की याद आ गई । रोज सुबह पैसेंजर आने से पहले यह गरम- गरम पूरियां और जलेबियां और चाय लाकर रख देता था । चाय भी कितनी बढ़ीया, कांच के गिलास में उपर तक भरी लबालब, पूरे ढ़ाई चम्मच चीनी और गाढ़ी मलाई । पैसेंजर भले ही रानीपुर लेट पहुँचे, गनेशी ने चाय पहुँचाने में कभी देर नहीं की । क्या मजाल कि कभी उससे कुछ कहना पड़े ।”

बहुत जल्द उन्हें लगने लगता है कि वो अपने ही घर में अवांछित से हैं । “घर में गजाधर बाबू के रहने के लिए कोई स्थान न बचा था । जैसे किसी मेहमान के लिए कुछ अस्थायी प्रबन्ध कर दिया जाता है, उसी प्रकार बैठक में कुर्सियों को दीवार से सटाकर बीच में गजाधर बाबू के लिए पतली सी चारपाई डाल दी गई थी । गजाधर बाबू उस कमरे में पड़े पड़े कभी- कभी अनायास ही, इस अस्थायित्व का अनुभव करने लगते । उन्हें याद आती उन रेलगाडियों की जो आती और थोड़ी देर रूक कर किसी और लक्ष्य की ओर चली जाती ।” बैठक में पड़ी उनकी चारपाई कुछ ही दिनों में बेटे- बहु को चुभने लगती है । उन्हें लगता है कि बाबु जी की खाट बैठक की सुन्दरता नष्ट कर रही है । बच्चों के पास जब भी गजाधर बाबु बैठना चाहते वो किसी ना किसी बहाने से उनके पास से उठकर चले जाते । पत्नी को रसोई, अचार बडि़यों से फुरसत नहीं थी । जिस पत्नी की याद में गजाधर बाबु ने न जाने कितनी रातें गुजारी थी, जिसे उन्होंने हर पल याद किया था-.आज वही पत्नी उनके पास होकर भी पास नहीं है । पत्नी से जिस आत्मीयता की वो तलाश करते हैं, वो उसके व्यवहार में कहीं नहीं नजर नहीं आता । घर के खर्च को लेकर जब वो पत्नी से बात करना चाहते हैं और कहते हैं कि थोड़ी कटौती करो तो पत्नी का यह जवाब उन्हें आहत कर जाता है कि- “सभी खर्च तो वाजिब है, न मन का पहना, न ओढ़ा ।” “गजाधर बाबू ने आहत, विस्मित दृष्टि से पत्नी को देखा । उनसे अपनी हैसियत छिपी न थी । उनकी पत्नी तंगी का अनुभव कर उसका उल्लेख करतीं । यह स्वाभाविक था, लेकिन उनमें सहानुभूति का पूर्ण अभाव गजाधर बाबू को बहुत खटका । उनसे यदि राय बात की जाती कि प्रबन्ध कैसे हो, तो उन्हें चिन्ता कम, संतोष अधिक होता लेकिन उनसे तो केवल शिकायत की जाती थी, जैसे परिवार की सब परेशानियों के लिए वही जिम्मेदार थे ।” अजीब सी वितृष्णा और मानसिक तनाव से गुजरते हैं गजाधर बाबु, “यही थी क्या उनकी पत्नी जिसके हाथों के कोमल स्पर्श, जिसकी मुस्कान की याद में उन्होंने सम्पूर्ण जीवन काट दिया था ? उन्हें लगा कि वह लावण्यमयी युवती जीवन की राह में कहीं खो गई और उसकी जगह आज जो स्त्री है, वह उनके मन और प्राणों के लिए नितान्त अपरिचिता है। गाढ़ी नींद में डूबी उनकी पत्नी का भारी शरीर बहुत बेडौल और कुरूप लग रहा था, श्रीहीन और रूखा था । गजाधर बाबू देर तक निस्वंग दृष्टि से पत्नी को देखते रहें और फिर लेट कर छत की ओर ताकने लगे । हर ओर उन्हें अपरिचित माहोल मिलता है । यहाँ तक कि बेटी भी उनसे दूर ही होती चली जाती है । बसन्ती को कुछ भी कहने का अधिकार गजाधर बाबु को नहीं है । उनकी एक दिन की पावन्दी उसे बेटी से भी दूर कर देती है और ऐसे में ही एक दिन पत्नी कहती है कि, बेटा अलग रहने की सोच रहा है तो गजाधर बाबु विचलित हो उठते हैं- “गजाधर बाबू को और रोष हुआ । लड़की के इतने मिजाज, जाने को रोक दिया तो पिता से बोलेगी नहीं । फिर उनकी पत्नी ने ही सूचना दी कि अमर अलग होने की सोच रहा है । क्यों ? गजाधर बाबू ने चकित हो कर पूछा । पत्नी ने साफ- साफ उत्तर नहीं दिया । अमर और उसकी बहू की शिकायतें बहुत थी । उनका कहना था कि गजाधर बाबू हमेशा बैठक में ही पड़े रहते हैं, कोई आने- जानेवाला हो तो कहीं बिठाने की जगह नही । अमर को अब भी वह छोटा सा समझते थे और मौके- बेमौके टोक देते थे । बहू को काम करना पड़ता था और सास जब तब फूहड़पन पर ताने देती रहती थीं । हमारे आने के पहले भी कभी ऐसी बात हुई थी ? गजाधर बाबू ने पूछा । पत्नी ने सिर हिलाकर जताया, नहीं । उन्हें लगा कि वह जिन्दगी द्वारा ठगे गए हैं । उन्होंने जो कुछ चाहा उसमें से उन्हें एक बूंद भी न मिली ।” गजाधर बाबु सोच लेते हैं कि अब वो घर के किसी भी मामले में दखल नहीं देंगे । मानसिक त्रासदी को झेलने के लिए वो विवश हैं किन्तु सबसे ज्यादा आहत वो इस बात से होते हैं कि, उनकी पत्नी को भी उनकी मनोदशा की परवाह नहीं है । बल्कि वो उन्हें अनदेखा ही करती है और शांति महसूस करती है जिसकी चर्चा वो गाहे बगाहे कर दिया करती है- “ठीक ही हैं, आप बीच में न पड़ा कीजिए, बच्चे बड़े हो गए हैं, हमारा जो कर्तव्य था, कर रहें हैं । पढ़ा रहें हैं, शादी कर देंगे ।”

गजाधर बाबू ने आहत दृष्टि से पत्नी को देखा- “उन्होंने अनुभव किया कि वह पत्नी व बच्चों के लिए केवल धनोपार्जन के निमित्तमात्र हैं । जिस व्यक्ति के अस्तित्व से पत्नी माँग में सिन्दूर डालने की अधिकारी हैं, समाज में उसकी प्रतिष्ठा है, उसके सामने वह दो वक्त का भोजन की थाली रख देने से सारे कर्तव्यों से छुट्टी पा जाती हैं । वह घी और चीनी के डब्बों में इतना रमी हुई हैं कि अब वही उनकी सम्पूर्ण दुनिया बन गई हैं । फिर अवकाशप्राप्त गजाधर बाबु एक अहम फैसला लेते हैं- “मुझे सेठ रामजीमल की चीनी मिल में नौकरी मिल गई हैं । खाली बैठे रहने से तो चार पैसे घर में आएं, वहीं अच्छा हैं। उन्होंने तो पहले ही कहा था, मैंने मना कर दिया था । फिर कुछ रूक कर, जैसी बुझी हुई आग में एक चिनगारी चमक उठे, उन्होंने धीमे स्वर में कहा, मैंने सोचा था, बरसों तुम सबसे अलग रहने के बाद, अवकाश पा कर परिवार के साथ रहूंगा । खैर, परसों जाना हैं । तुम भी चलोगी ? वक्त एकबार फिर उनका साथ नहीं देता, पत्नी जाने से इनकार कर देती है । एक खालीपन और तनाव के साथ गजाधर बाबु फिर लौट जाते हैं, अपनी उसी दुनिया में जहाँ से वो बड़ी हसरतों के साथ वो वापस आए थे । कहानी का अंत इस पंक्ति के साथ होता है- “गजाधर बाबू की पत्नी सीधे चौके में चली गई । बची हुई मठरियों को कटोरदान में रखकर अपने कमरे में लाई और कनस्तरों के पास रख दिया । फिर बाहर आ कर कहा, अरे नरेन्द्र, बाबूजी की चारपाई कमरे से निकाल दे, उसमें चलने तक को जगह नहीं है ।

कमरे से चारपाई नहीं निकाली जाती है, बल्कि गजाधर बाबु को अपने ही घर से बेघर किया जाता है । जिनका आना घर के उन तमाम सदस्यों को अखरा था जिनके साथ रहने की कल्पना में ही गजाधर बाबु ने अपनी जिन्दगी गुजार दी थी । ‘वापसी’ में एक वृद्ध और अवकाशप्राप्त व्यक्ति की मनोदशा का चित्रण इतनी शिद्दत से हुई है कि इसकी हर पंक्ति हमें खुद से रुबरु कराती है । कुछ भी नया नहीं है, फिर भी मन को कुछ चुभता है । यह है हमारे समाज की व्यवस्था, हमारी सोच और पीढि़यों की टकराहट । जिसे साहित्य में पर्याप्त जगह मिली है । इस सन्दर्भ में वापसी एक ऐसी प्रतिनिधि कहानी है जो हिन्दी पाठकों के लिए सदा वांछनीय रहेगी ।