• २०८१ असोज २९ मङ्गलबार

सपने क्या सच होते हैं

सत्या शर्मा ‘कीर्ति’

सत्या शर्मा ‘कीर्ति’

मैं शहर में नई–नई ही आई थी,और मुझे रहने के लिए एक कमरे की तलाश थी । मेरी सहकर्मी अलका जी ने कहा–‘अगर आप कहें तो अपनी एक दोस्त हैं बात करती हूँ । यूँ तो वो किरायेदार नहीं रखती किन्तु कुछ दिन पहले बोल रहीं थी, कोई हो तो बोलना घर में मन लग जाएगा, शाम में चलती हूँ ।’
शाम में हम दोनों उनके घर गए, घर की इंटीरियर,रख–रखाव और गार्डन की खूबसूरती घर के मालिक की बेहतरीन पसन्द का नायाब नमूना थे । कुछ देर में एक शान्त, सौम्य और सरल सी महिला बाहर आई । मेरी दोस्त ने हम दोनों का आपस में परिचय करवाया । स्मिता जी यही नाम था उनका, पहली ही मुलाकात में अपनेपन का एहसास दिला दिया उन्होंने । और मैं अगले दिन उनके घर शिफ्ट हो गयी । उन्होंने अपने व्यबहार से कभी मुझे परायेपन का एहसास नही होने दिया । हमेशा सगी बहन सा प्यार लुटाते रही ।
लगभग ४२–४४ वर्षीय स्मिता जी समाज सेवा के कार्य से जुड़ीं थी । कई वृद्धाआश्रम, अनाथआश्रम उनके द्वारा दिए आर्थिक सहयोग से चलते थे । जाने कितने गरीब बच्चियों का उन्होंने स्वयं कन्यादान किया था । ईश्वर की कृपा से धन–दौलत से भरा पूरा परिवार था । पर परिवार क्या था– बस पति और पत्नी । घर बच्चों की किलकारी से महरुम था । अकसर मुझे उनकी आँखों में एक खालीपन का एहसास होता, कई बार चेहरे पर गहरी उदासी झलक आती पर प्रकट में हमेशा ही खुश और सुखी रहने का प्रयास करती ।
दरअसल मैं नई–नई ही आई थी तो कुछ खुल कर पूछ भी नही पाती थी । एक डर सा लगता कहीं कोई जख्म हरा न हो जाए । एक दिन मैंने उनकी बाई कमला से पूछा–‘स्मिता जी कभी–कभी यूँ उदास सी क्यों दिखती हैं ।’ कमला ने कहा– ‘क्या बताऊँ, भाभी जी बहुत ही भली औरत हैं, पर न जाने क्यों उन्हें औलाद का सुख नही मिला । पता है जब मैं पेट से थी तो भाभी जी ने महँगे से अस्पताल में मेरा इलाज करवाया था, तीन महीने की छुट्टी भी दी थी और मेरे बच्चे पर भी काफी खर्च किये थे ।’ मैंने पूछा– ‘उन्होंने कोई उपाय नही किये ?’ बहुत किया दीदी हवन, पूजन ग्रह शान्ति, तीर्थों के दर्शन किये, मन्नत धागा सब कुछ । पर पता नही कहाँ क्या चूक हो गयी है ।
मेरा भी मन सचमुच दुःखी हो चला था ।मैंने कहा– ‘वो सब तो ठीक है डाक्टर क्या बोलते हैं ?’ उसकी आँखे अचानक से चमक उठी, बोली– ‘दीदी डा. कहते हैं, सब ठीक है, शरीर में कोई दिक्कत नहीं ।’ मैंने राहत से कहा–‘हाँ तो चिंता मत कर जल्दी ही गोद भर जायेगी ।’ पर कमला फिर उदास हो बोली–‘कब दीदी ! भाभी जी तो ४२–४४ की हो चली है, औरतों की उम्र भी तो मायने रखती है । हमारे जैसे जो बच्चों को ढंग से पाल नही सकते, उसके घर बच्चों से भर जाते हैं, जहाँ बच्चे की जरुरत है, वहाँ किलकारी गूंजती ही नही ।’
बोलते–बोलते कमला मेरे कमरे से चली गयी । मैं भी उदास हो सोचने लगी आखिर भले लोगों के ही साथ ऐसा क्यों   होता है  ? और जाने कब मुझे नींद आ गयी थी अचानक किसी के रोने की आवाज से मेरी नींद खुली, शायद आधी रात गुजर चुकी थी । जोर–जोर से स्मिता जी रोये जा रही थीं । मैं भाग कर उनके कमरे में गयी । उनके पति रवि जी उन्हें शांत करवाने की कोशिश कर रहे थे, पर वो कुछ भी समझने की स्थिति में नही थी । थोड़ी देर बाद बोलीं–‘सब मेरे ही कर्मों का फल है ।’ रवि जी ने उन्हें समझते हुए कहा– ‘पहले शांत हो जाओ, लो पानी पी लो फिर बताओ क्या हुआ ?’ स्मिता जी ने कहा–‘अभी–अभी मैंने स्वप्न देखा पिछले जन्म में मैं तीन खूबसूरत और प्यारे बच्चों की माँ थी । मेरे पति एक साधरण से कर्मचारी थे । छोटी सी नौकरी और कम सैलरी में घर किसी तरह चल पाता था । किंतु मुझे पैसे, ऐसो–आराम की बहुत चाह थी, इसलिए मैं भी एक आफिस में पी. ए. की नौकरी कर ली । फिर तो जैसे मेरे मन की ही मुराद जैसे पूरी हो गयी । आगे बढ़ने की भूख में क्या सही, क्या गलत सब भूल बैठी । और फिर एक दिन अपना घर, अपने बच्चे सब कुछ छोड़ अपने बास की रंगीन दुनिया में शामिल हो गयी । मेरे पति, मेरे बच्चे सब मुझे मनाने आये पर मेरी आँखों पर धन–दौलत का नशा चढ़ा था । मेरे पति से मुझे गरीबी की बू और बच्चों में अपने पैर की बेडि़याँ नजर आ रही थी । इसलिए मैंने साफ–साफ उन्हें मना कर दिया । तब मेरी बड़ी बेटी जो करीब १२ वर्ष की थी, ने बड़े ही दुःख और घृणा से कहा–‘माँ आपने अपने बच्चों को ठुकराया है ना अब आप कभी माँ नही बन पाएगीं, न इस जन्म में न अगले किसी भी जन्म में ।’ और फिर मेरी नींद खुल गयी । बोलो न रवि– ‘क्या सपने सचमुच सच्चे होते हैं ?क्या प्रारब्ध कर्म की बाते सही हैं ? क्या सचमुच हम पिछले जन्म के पापों का बोझ ढोते हैं ?   पर ! हम सभी के पास इन बातों का कोई भी जबाब नही था । किन्तु प्रश्न यथावत गूंज रहे थे– कि क्या सपने सचमुच कुछ कहने की कोशिश करते हैं, क्या सचमुच हमारे द्वारा किये कर्म ही हमारे भाग्य बन हमारे सामने आते हैं ? और मैं अनगिनत सवालों में उलझी धीरे–धीरे अपने कमरे में आ गयी।
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(साहित्य की विभिन्न विधा में स्वतंत्र लेखन÷राँची झारखंड, भारत)

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