आज सम्पूर्ण भूमण्डल प्रकृति की असहज दशा और पर्यावरणीय चिन्ता से त्रस्त है । विकसित समाज और आधुनिक बनने की चाहत ने प्रकृति के साथ निरन्तर खिलवाड़ किया है, जिसका परिणाम मानव समाज भुगत रहा है । बावजूद इसके इसे सुरक्षित करने के प्रति मानव सचेत नहीं हो पाया है । प्रकृति, जिससे जीवन है, जिससे हम हैं और जो हमारे लिए है, उसे ही हम तबाह करने पर तुले हुए हैं ।
पर्यावरण मनुष्य के जीवन को संतुलित एवं नियंत्रित रखता है । प्रकृति प्रदत्त समस्त उपादानों के साथ खेलकर मनुष्य आनंद ले रहा है, यह भूलकर कि हमारे इस अन्याय के लिए प्रकृति हमें क्या दंड देगी, हमारे बाह्य एवं आंतरिक भाव के वातावरण को प्रकृति ही संतुलित करती है । वनस्पति, जीव जंतुओं, धरती, पानी, हवा, प्रकाश का दोहन अंधाधुध हो रहा है । साथ ही मानवीय भाव, प्रेम, संवेदना, उदात्तता का भी दोहन दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है । प्रकृति प्रदत्त पर्यावरण मानवजाति के अस्तित्व के लिए जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी मानवीय भाव और संवेदना भी है । कवियों ने प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित कर मानवीय भावभूमि के पर्यावरणीय उद्बोधनों को नया आयाम प्रदान किया है छायावादी कवियों ने प्रकृति का मानवीकरण कर प्रकृति के अचेतन एवं जड़ अवयवों को सचेतना से जोड़ा है । प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत ने कविता करने की प्रेरणा का स्रोत प्रकृति को ही बताया है । आधुनिक युग में काव्यों में प्रकृति चित्रण उन रूपों में चित्रित हुई है, जिसमें आलंबन, उद्दीपन, संवेदनात्मक वातावरण निर्माण, रहस्यात्मक, प्रतीकात्मक अलंकार योजना, मानवीकरण लोकशिक्षा और दूती के रूप में प्रकृति चित्रित की जाती है । समस्त पर्यावरणीय बाह्य वृतियों के अध्ययन के साथ साथ पर्यावरणीय अंतवृतियों का अध्ययन भी आवश्यक है, जो साहित्य में ही संभव है । छायावादी कवियों का प्रकृति से गहरा नाता रहा है । छायावादी कवि जगत् के अणु–अणु एवं कण–कण में एक अलौकिक सौंदर्य की छटा देखता है ।
हिन्दी साहित्य में देखा जाय तो सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्सयायन ‘अज्ञेय’ एक विवादास्पद कवि के रूप में जाने जाते हैं । छायावाद की देहरी और प्रगतिवाद के आँगन के बीच खड़ा अज्ञेय का काव्य संसार प्रयोगवाद की नवीन परिकल्पना के साथ स्थापित हुआ । परन्तु छायावाद की छाया में जब अज्ञेय को देखते हैं तो यह बावरा अहेरी प्रकृति की गोद में मंत्रमुग्ध सा समर्पित दिखता है । अज्ञेय ने कहा है कि साधारण बोलचाल में ‘प्रकृति’ ‘मानव’ का प्रतिपक्ष है, अर्थात मानवेतर ही प्रकृति है, वह सम्पूर्ण परिवेश जिसमें मानव रहता है, जीता है, भोगता है और संस्कार ग्रहण करता है और भी स्थूल दृष्टि से देखने पर प्रकृति मानवेतर का वह अंश हो जाती है जो कि इन्द्रियगोचर है, जिसे हम देख, सुन और छू सकते हैं, जिसकी गन्ध पा सकते हैं और जिसका आस्वादन कर सकते हैं। साहित्य की दृष्टि कहीं भी इस स्थूल परिभाषा का खंडन नहीं करती, किन्तु साथ ही कभी अपने को इसी तक सीमित भी नहीं रखती। अथवा यों कहें कि अपनी स्वस्थ अवस्था में साहित्य का प्रकृतिबोध मानवेतर, इन्द्रियगोचर, बाह्य परिवेश तक जाकर ही नहीं रुक जाता क्योंकि साहित्यिक आन्दोलनों की अधोगति में विकृति की ऐसी अवस्थाएँ आती रही हैं जब उसने बाह्य सौन्दर्य के तत्त्वों के परिगणन को ही दृष्टि की इति मान लिया है। यह साहित्य की अन्तःशक्ति का ही प्रमाण है कि ऐसी रुग्ण अवस्था से वह फिर अपने को मुक्त कर ले सका है, और न केवल आभ्यन्तर की ओर उन्मुख हुआ है बल्कि नयी और व्यापकतर संवेदना पाकर उस आभ्यन्तर के साथ नया राग सम्बन्ध भी जोड़ सका है।
प्रकृति के प्रेमी हैं अज्ञेय क्योंकि प्रकृति के बगैर साहित्य अधूरा है । सुख हो दुख हो, विरह हो या मिलन हो, जीवन हो या मृत्यु हो, प्रकृति मानव मन की भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए हमेशा आलम्बन बनी है । अज्ञेय प्रकृति के सौन्दर्य का आचमन करने में पूर्णतया दक्ष हैं । संध्या का आगमन और उसके साथ ही आकाश में टिमटिमाता एक अकेला सितारा और उस सौंदर्य को निहारती कवि की आँखें—
उषा अनागता पर प्राची में
जगमग तारा एकाकी
चेत उठा है शिथिल समीरण
मैं अनिमिष हो देख रहा हूँ
यह रचना भैरव छविमान ।
तेरा स्थान, (इत्यलम)
और फिर संध्या सुन्दरी के आगमन को उनका मन आतुर हो उठता है —
संध्या की किरण परी ने, उठ अरुण पंख दो खोले…..
देखी उस अरुण किरण ने, कुल पर्वतमाला श्यामल
बस एक श्रृंग पर हिम का, था कम्पित कंचन झलमल ।—अंतिम आलोक(इत्यलम)
संध्याकालीन एक मनोहारी चित्र और द्रष्टव्य है जहाँ कवि माँझी को हिम्मत देते हैं—
साँझ हुई सब ओर निशा ने फैलाया निज चीर
नभ से अंजन बरस रहा है नहीं दीखता तीर
माँझी मत हो अधिक अधीर ।
प्रकृति का चित्रण करते समय कवि अज्ञेय का मन पूर्वाग्रहों से मुक्त रहा है । उन्होंने प्रकृति के विराट् सौन्दर्य में अपने जीवन को तल्लीन करने की कामना व्यक्त की है । शरद्कालीन चाँदनी में कवि की निमग्नता दर्शनीय है, यथा ः
“शरद चाँदनी बरसी
अँजुरी भर कर पी लो
ऊँघ रहे हैं तारे सिहरी सरसी
औ प्रिय, कुमुद ताकते अनझिप ।”
प्रकृति खुलकर अज्ञेय की रचनाओं में वर्णित हुई है । दूर्वाचल, सो रहा है झोंप, क्वांर की बयार, शरद, कल की पूनो आदि इनकी प्रकृतिपरक रचनाएँ हैं । दूर्वाचल प्रकृति के मोह को दर्शाती हुई कविता है, उसके साथ कवि का एक मौन संवाद है । इसका प्रथम अंश पर्वत प्रदेश के सौन्दर्य की तस्वीर अंकित करता है । इसमें प्रयुक्त उपमान नए और भावपरक हैं । मानसिक भावों से प्रकृति के उपादानों की उपमा दी गई है —
पाश्र्व गिरि का नम्र, चीड़ों में
डगर चढ़ती उमंगों सी ।
बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा ।
विहग शिशु मौन नीड़ों में ।
अज्ञेय प्रकृति वर्णन में रीति कालीन और छायावादी कवियों से भिन्न हैं । बाँसों के झुरमुट पहले भी देखे गए थे, किन्तु सुमित्रानन्दन पन्त ने जब लिखा ः
बाँसों का झुरमुट, संध्या का झुटपुट
हैं चहक रही चिडि़याँ, टी वी टी टुट टुट ।
तब यह एक झुरमुट बाँसों के और सब झुरमुटों से विशिष्ट हो गया क्योंकि व्यक्तिगत दर्शन और अनुभूति के खरेपन ने उसे एक घनीभूत अद्वितीयता दे दी . प्रकृति आधार है हमारे जीने का, अज्ञेय की कवि दृष्टि जीवन की उदात्तता का आधार धूप, चिडि़या,की चहचहाहट, घास की हरियाली, शंखपुष्पी की उजास, हवा का खुलापन, लहरिल प्रवाह को मानते हैं और अनायास ही यह सभी सजीव हो उठते हैं हमारी आँखों में । जो कुछ क्षण तक एक उपादान मात्र थे वो साकार हो उठता है हमारे जीवन का उपांग बनकर ।
सीधी सरल और सहज भाषा में विस्तृत कह जाने की असीम क्षमता कवि अज्ञेय में थी और इसलिए कवियों की भीड़ में भी उन्होंने अपना एक विशेष स्थान बनाया था । एक यायावर कवि जिन्दगी को इसी यायावरी में जीता रहा ।
साहित्य आईना दिखाता है कि आज का भोगवादी, मानव समुदाय, जो सिर्फ और सिर्फ प्रकृति का उपभोग कर रहा है, मन की आंखों से, आत्मा की गहराई से देखने पर, महसूस करने पर, प्रकृति के चेतन रूप को समझकर प्रकृति के साथ मानवोचित व्यवहार कर सकता है। जरूरत है अपने अंदर के जड़तत्वों को बाहर निकाल फेंकने की। प्रकृति में निहित जीवनदर्शन को समझने के लिए साहित्य के करीब आना आवश्यक है। आवश्यकता है प्रकृति के मन को देखने की। जिस दिन मानव प्रकृति में अपनी भावनाओं का अक्स देखेगा, उस दिन पर्यावरण स्वमेव परिष्कृत और परिशोधित हो जाएगा ।