• २०८१ असोज २९ मङ्गलबार

फुर्सत

डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट

इस महामारी ने याद दिला दी

हर एक की परिवार कहानी

समय नही मिलता है हमको

परिजनों को सुनाते यही कहानी

सुबह उठते ही काम की जल्दी

बच्चों से नही मिल पाते थे

तैयार होकर सुबह सवेरे ही

हम काम पर दौड़े चले जाते थे

सारा दिन काम में बीतता

याद न रहती घरवालो की

थकहार कर जब घर लौटते

सुध न रहती बतियाने की

परिजन कुछ बोलते अगर

व्यवहार चिड़चिड़ा हो जाता था

घर को तो हम भूल ही चुके थे

बस काम से हमारा नाता था

कभी नही पूरी कर पाए हम

ख्वाहिश साथ खाना खाने की

युगल हमारी चुपचाप सहती

वेदना, साथ न रह पाने की

बच्चों को भी समय न कभी

हम अपनी ओर से दे पाए

बच्चे से वे कब बड़े हो गए

एहसास कभी न कर पाए

देशाटन करने की हर बात

मुख के मुख में ही रह जाती

कभी चलेंगे अपनो के घर

मन के मन मे ही रह जाती

लगता नही था समय बदलेगा

अपना काम पराया हो जाएगा

महामारी ऐसी आएगी जग में

घर रहना मजबूरी हो जाएगा

बंद हो जाने से काम हमारा

आमदनी देवी रुख़सत हो गई

पर फिर भी हमारे घर रहने से

युगल हमारी प्रसन्न हो गई

बच्चों का तो क्या ही क्या?

खुशियां सारे जहान की मिल गई

महामारी के नाम पर ही सही

फुर्सत सारे जहान से मिल गई।