• २०८२ आश्विन ७, मंगलवार

न तुम सो रही हो, न मैं सो रहा हूँ

हरिवंशराय बच्चन

हरिवंशराय बच्चन

न तुम सो रही हो, न मैं सो रहा हूँ,
मगर यामिनी बीच में ढल रही है।

दिखाई पड़े पूर्व में जो सितारे,
वही आ गए ठीक ऊपर हमारे,

क्षितिज पश्चिमी है बुलाता उन्हें अब,
न रोके रुकेंगे हमारे(तुम्हारे।

न तुम सो रही हो, न मैं सो रहा हूँ,
मगर यामिनी बीच में ढल रही है।

उधर तुम, इधर मैं, खड़ी बीच दुनिया,
हरे राम१ कितनी कड़ी बीच दुनिया,

किए पार मैंने सहज ही मरुस्थल,
सहज ही दिए चीर मैदान(जंगल,

मगर माप में चार बीते बमुश्किल,
यही एक मंज़िल मुझे खल रही है।

न तुम सो रही हो, न मैं सो रहा हूँ,
मगर यामिनी बीच में ढल रही है।

नहीं आँख की राह रोकी किसी ने,
तुम्हें देखते रात आधी गई है,

ध्वनित कंठ में रागिनी अब नई है,
नहीं प्यार की आह रोकी किसी ने,

बढ़े दीप कब के, बुझे चाँद(तारे,
मगर आग मेरी अभी जल रही है।

न तुम सो रही हो, न मैं सो रहा हूँ,
मगर यामिनी बीच में ढल रही है।

मनाकर बहुत एक लट मैं तुम्हारी
लपेटे हुए पोर पर तर्जनी के

पड़ा हूँ, बहुत ख़ुश, कि इन भाँवरों में
मिले फ़ॉर्मूले मुझे ज़िंदगी के,

भँवर में पड़ा(सा हृदय घूमता है,
बदन पर लहर पर लहर चल रही है।

न तुम सो रही हो, न मैं सो रहा हूँ,
मगर यामिनी बीच में ढल रही है।


हरिवंशराय बच्चन