जेठ नहीं, यह जलन हृदय की,
उठकर जरा देख तो ले;
जगती में सावन आया है,
मायाविन! सपने धो ले ।
जलना तो था बदा भाग्य में
कविते ! बारह मास तुझे;
आज विश्व की हरियाली पी
कुछ तो प्रिये, हरी हो ले ।
नन्दन आन बसा मरु में,
घन के आँसू वरदान हुए;
अब तो रोना पाप नहीं,
पावस में सखि! जी भर रो ले ।
अपनी बात कहूँ क्या ! मेरी
भाग्य-लीक प्रतिकूल हुई;
हरियाली को देख आज फिर
हरे हुए दिल के फोले ।
सुन्दरि ! ज्ञात किसे, अन्तर का
उच्छल-सिन्धु विशाल बँधा ?
कौन जानता तड़प रहे किस
भाँति प्राण मेरे भोले !
सौदा कितना कठिन सुहागिनि !
जो तुझ से गँठ-बन्ध करे;
अंचल पकड़ रहे वह तेरा,
संग-संग वन-वन डोले ।
हाँ, सच है, छाया सुरूर तो
मोह और ममता कैसी ?
मरना हो तो पिये प्रेम-रस,
जिये अगर बाउर हो ले ।
रामधारी सिंह “दिनकर”