हरपल ख़ुदी की याद में रोना पड़ा मुझे
लाजिम था जागना तभी सोना पड़ा मुझे
नादान दिल का हाल बता भी नहीं सकी
सब अपना नींद–ओ–चैन भी खोना पड़ा मुझे ।
कितने दिनों रहे हैं मुहब्बत के गांव में,
साये के लिए पेड़ भी बोना पड़ा मुझे ।
चुनरी तुम्हारे नाम की सर पर जो ओढ़ली
लागा जो दाग–ए–इश्क सो धोना पड़ा मुझे
कितने सितम तुम्हारी मुहब्बत में सह लिये
खुद से ही पशेमान –सा होना पड़ा मुझे
तुम हो, तुम्हारे साथ जो रिश्ते का बोझ है
केवल तुम्हारी चाह में’ ढोना पड़ा मुझे ।
मोनिका शर्मा, गुरुग्राम हरियाणा