• २०८१ पौष २९ सोमबार

मैं स्त्री..

रूपम पाठक

रूपम पाठक

सच है, कि तुम्हें पाकर,
मैं भूल गई थी सारी दुनिया को,
तुम्हारे सिवा, ईश्वर से कभी कुछ नहीं मांगा,
फिर भी, जो पाया, सब तुम पर वार दिया ।
तेरी नजरों से ही खुद को
और दुनिया को देखने लगी थी,
तेरी मुस्कुराहटों में ही
मेरी ज़िंदगी संवरने लगी थी और
तुझमें ही मेरी दुनिया सिमटने लगी थी ।
पति ही नहीं तुम्हें देवता माना,
तुम्हें अपने अच्छे कर्मों का फल जाना ।
पर..तुम देवता तो क्या,
एक सच्चे इंसान भी नहीं थे ।
तुम्हें प्यार,समर्पण, त्याग,
विश्वास, इज्ज़त, भरोसा
जैसे शब्दों के शायद
मतलब भी पता नहीं थे ।
तुम तो स्त्री को सिर्फ शरीर,
भोग्या, दासी, आश्रिता, बेजुबान
और कमजोर ही समझते रहे थे ।
हर पल उपयोगिता की तराजू में
मुझे तोलते रहे थे ।
तुम्हारे लिए तो मैं,
कभी महत्वपूर्ण थी ही नहीं
तुम्हारी ज़िंदगी और घर में मुझे
एक चलती–फिरती मशीन बना दिया ।
भर दिया अँधेरा मेरी ज़िंदगी में,
कैद कर घर की चारदीवारी में,
मर्यादाओं की डोर से बाँध,
परम्पराओं की जंजीर में जकड़,
मुझे तन और मन से तोड़ते रहे ।
जिम्मेदारियों के बोझ तले दबाकर मुझे,
तुम विचरते रहे खुले आकाश में,
स्वच्छंद पक्षी की तरह,
डींगें हांकते रहे झूठे पुरुषत्व की,
जीवन के सफर में मुझे तन्हा छोड़कर ।
पर आज, मैं स्वीकार करती हूँ,
तुमसे अलग रहना ।
बचाना चाहती हूँ अपने वजूद को
तुमसे दूर ।
तुम्हारी सोच को तो नहीं बदल पाई,
पर, बदलना चाहती हूँ अपनी नियति को ।
अब, मैं तुम्हारा साया भी नहीं
पड़ने देना चाहती खुद पर ।
पूरी साँस लेना चाहती हूँ खुली हवा में,
और पत्थर की मूरत या मर्यादा की
देवी बनकर नहीं,
जीना चाहती हूँ मानवी बनकर ।
अब, मैं स्वाभिमान की कदमों पर चलकर
तय करना चाहती हूँ बाकी सफर ।
और बनाना चाहती हूँ,
अपनी एक जीती–जागती पहचान ।


रूपम पाठक, काठमांडू, नेपाल