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बाबूजी, तुम गए नहीं हो,यहीं हो !
सच में यहीं कहीं हो ।
बसे हो सुबह की महफिल में, तन्हाई में
हर कमरे में, अंगनाई में ।
बसे हो सुबह की पहली चाय में, नाश्ते और दोनों वक्त के खाने में
एक-एक निवाले में, एक-एक दानें में ।
बसे हुए हो आज भी, समय की भागम-भाग में
सुख और दुख के राग में ।
बसे हुए हो आज भी दिन की बोझल सांसो में
शाम के धुंधले सायों में ।
बसे हुए हो आज भी रातों की खामोशी में
ख्वाबों की मदहोशी में ।
बसे हुए हो आज भी रिश्तो की फुलवारी में
चाहत की हर क्यारी में ।
बसे हुए हो आज भी खुशियों के त्यौहारों में
रंगीले गुब्बारों में ।
बसे हुए हो आज भी बचपन की मीठी यादों में
वादों और संवादो में ।
बसे हुए हो आज भी मेरे ध्यान और ज्ञान में
हर शोहरत, हर सम्मान में ।
बसे हुए हो आज भी मेरे चिंतन में, शब्दों में,
कविताओं में, गजलों में ।
बाबूजी, तुम गए नहीं हो,यहीं हो !
सच में यहीं कहीं हो ।
साभार: चाहतों के साये मेंं
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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)