• २०८० असोज ९ मङ्गलबार

तुम्हें क्या कहूँ ?

बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

कैसे कहूँ तुम्हें केवल फूल !
उसमें तो सिर्फ सौन्दर्य और सुगंध होती है
तुम चुभती हो जरूर, तभी तो काँटों-सी लगती हो
लेकिन तुम्हे सिर्फ काँटा ही कैसे कहूँ
क्योंकि तुक्हारी चुभन भी आह्लादित करती है
पुलकित करती है ।

तुम सुन्दर हो, बहुत सुन्दर
लेकिन तुम केवल चाँद भी नहीं हो
क्योंकि मैं तुम्हारे दाग में अनन्य अनुराग पाता हूँ ।
हाँ, तुम्हारे काले घने केश निस्तब्ध रात की तरह लगते हैं
लेकिन मैं उसी में देखता हूँ प्रेमिल प्रभात !

ऐसा सस्वर संगीत हो तुम
कि बिना आवाज ही सुर–तालयुक्त
विरह के आघात हो तुम
लेकिन संयोग का सुहागयुक्त !

आँधी-तूफान और घात-प्रतिघात
लेकिन तेरी झीनी याद मात्र आने से
हो जाता हूँ तेरे जीवन के साथ !

तृप्ति से भी बढकर उसकी तृष्णा
मेरे प्रतिपल की स्वप्निल सिर्जना
अंधेरों में ही मिलने वाली तुम मेरी दीप्ति
मेरी ज्योत्सना !

प्रिय ! तुम्हें क्या कहूँ मैं ?
किस नाम से पुकारूँ ?

साभार: चाहतों के साये मेंं


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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)